Thursday, 11 December 2014

सांप्रदायिक दंगों से भी खतरनाक होने जा रहा है संघ परिवार का घर वापसी अभियान

सांप्रदायिक दंगों से भी खतरनाक होने जा रहा है संघ परिवार का घर वापसी अभियान
File photo

सांप्रदायिक दंगों से भी खतरनाक होने जा रहा है संघ परिवार का घर वापसी अभियान

संघ परिवार के प्रवक्ता बतौर देश की विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने गीता के राष्ट्रीय धर्म ग्रंथ बनाये जाने का ऐलान कर दिया है जैसे शिक्षा मंत्री ने संस्कृत को अनिवार्य पाट बना देने का अभियान छेड़ा हुआ है।
इसी बीच, हमारे पुरातन मित्र कैथालिक संगठन के जॉन दयाल ने पूछा है कि देश में पहले से ही एक राष्ट्रीय धर्मग्रंथ है, जो भारतीय संविधान है, तो दूसरे ग्रंथ की जरुरत क्यों है। उनका सवाल वाजिब है।
यह शायद साबित करने की कोई जरुरत नहीं है कि धर्मग्रंथों को पवित्र मानने वाली और पवित्रता के सिद्धांत के तहत नस्ली नरसंहार को अभ्यस्त सत्ता पक्ष के लिए भारतीय संविधान कोई पवित्र ग्रंथ नहीं है।
जान दयाल जी, संघ परिवार तो मनुस्मृति अनुशासन लागू करना चाहता है और इसीलिए गीता को राष्ट्रीय ग्रंथ बनाने की यह कवायद है।
हांलांकि आनंद तेलतुंबड़े का कहना है कि इस संविधान का आज तक सत्ता पक्ष के हित में ही इस्तेमाल हुआ है, उसकी बुनियादी फ्रेम में वर्तनी में भी बिना किसी बदलाव के।
बाकायदा संवैधानिक प्रावधानों के विरुद्ध और संवैधानिक फ्रेम को तोड़ते हुए तमाम कायदे कानून बदले जा रहे हैं मनुस्मृति शासन के हिंदू साम्राज्यवाद के हित में।
मौलिक अधिकार और नागरिकता तक खतरे में है।
लोकतंत्र और राष्ट्र का वजूद ही नहीं है।
सब कुछ मुक्त बाजार है।
देश और देश की जनता नीलामी पर है। नीलामी पर है प्रकृति और मनुष्यता।
हमने इसीलिए देश भर में इस बार संविधान दिवस मनाने की अपील की थी, जो मनाया भी गया। लेकिन संवैधानिक प्रावधानों के लिए, जल जंगल जमीन आजीविका नागरिक मानवाधिकार प्रकृति और पर्यावरण के हक हकूक के लिए जब तक आम जनता सड़क पर नहीं उतरती, इस संविधान का दो कौड़ी मोल नहीं रहने वाला है।
अभी इस संविधान की मनचाही व्याख्याएं संभव है और मनचाहा इस्तेमाल संभव है। वरना जैसे केसरिया कारपोरेट सत्ता ने योजना आयोग को कूड़ेदान में फेंक दिया, भारतीय संविधान का भी वही हश्र हुआ रहता।
गीता को राष्ट्रीय ग्रंथ बनाने का दांव इस बाबा अंबेडकर के अनुयायियों को वध्य बनाने का आयोजन है। जिसके तहत भारत अब सही मायने में हिंदुस्तान है और यहां गैर हिंदुओं को रहने की इजाजत नहीं है।
गैरनस्ली हिंदुओं की भी शामत है, जो सारे बहुजन हैं।
सांप्रदायिक दंगों से भी खतरनाक होने जा रहा है संघ परिवार का घर वापसी अभियान। इतिहास का बदला चुकाने का वक्त है यह केसरिया समय।
इतिहास गवाह है कि नारी उत्पीड़न ही धर्म अधर्म का सबसे बड़ा खेल है और धर्मांतरण का अचूक हथियार भी वही।
भारत विभाजन के वक्त, बांग्लादेश युद्ध के समय़ लाखों औरतों की जो अस्मत लूटी गयीं और उस लुटी हुई अस्मत की लाश पर हम अब तक सीमाओं के आर-पार आजादी का जश्न मना रहे हैं। इस इतिहास पर गौर करने की जरुरत है क्योंकि हिंदू साम्राज्यवाद फिर वहीं इतिहास दोहरा रहा है और उसके धनुर्धरों की निगाह में हम सारे लोग निमित्तमात्र वध्य ही हैं।
बांग्लादेश की विवादास्पद बना दी गयी मानवाधिकारवादी लेखिका तसलिमा नसरीन ने अपने ताजा फेसबुक पोस्ट पर लिखा हैः
১৯৭১ সালে পশ্চিম পাকিস্তানের হানাদার বাহিনীর বিরুদ্ধে ন’মাস যুদ্ধ করে জিতেছিল পূর্ব পাকিস্তানের মানুষ। ভারত সাহায্য করেছিল যুদ্ধে জিততে। ওই সাহায্যটা না করলে বাংলাদেশের পক্ষে যুদ্ধে জেতা সম্ভব হত বলে আমার মনে হয় না। বাংলাদেশের জন্ম আমাদের বুঝিয়েছিল, ভারত ভাগ যাঁরা করেছিলেন, দূরদৃষ্টির তাঁদের খুব অভাব ছিল। তাঁরা ভেবেছিলেন ‘মুসলমান মুসলমান ভাই ভাই, হোক না তারা বাস করছে হাজার মাইল দূরে, হোক না তাদের ভাষা আর সংস্কৃতি আলাদা, যেহেতু ধর্মটা এক, বিরোধটা হবে না।’ ভুল ভাবনা। ভারত ভাগ হওয়ার পর পরই বিরোধ শুরু হয়ে গেল। পশ্চিম পাকিস্তানি শাসকগোষ্ঠী শোষণ করতে শুরু করলো পূর্ব পাকিস্তানের মুসলমানদের । নিজেদের ভাষাও চাপিয়ে দিতে চাইলো। আরবের ধনী মুসলমানরা যেমন এশিয়া বা আফ্রিকার গরীব মুসলমানদের তুচ্ছতাচ্ছিল্য করে, মানুষ বলে মনে করে না, পশ্চিম পাকিস্তানী শাসকরা ঠিক তেমন করতো, বাঙালিদের মানুষ বলে মনে করতো না। পূর্ব পাকিস্তান ফসল ফলাতো, খেতো পশ্চিম পাকিস্তান। পুবের ব্যবসাটা বাণিজ্যটা ফলটা সুফলটা পশ্চিমের পেটে। এ ক’দিন আর সয়! মুসলমানে মুসলমানে যুদ্ধ হল। শেষে, বাঙালি একটা দেশ পেলো। ভীষণ আবেগে দেশটাকে একেবারে ধর্মনিরপেক্ষ, সমাজতান্ত্রিক, গণতান্ত্রিক ইত্যাদি চমৎকার শব্দে ভূষিত করলো। ক’জন মানুষ ওই শব্দগুলোর মানে বুঝতো তখন? এখনই বা কতজন বোঝে? বোঝেনি বলেই তো চল্লিশ বছরের মধ্যেই দেশটা একটা ছোটখাটো পাকিস্তান হয়ে বসে আছে। ইসলামে থিকথিক করছে দেশ। টুপিতে দাড়িতে, হিজাবে বোরখায়, মসজিদে মাজারে চারদিক ছেয়ে গেছে। মানুষ সামনে এগোয়, বাংলাদেশ পিছোলো। চল্লিশ বছরে যা পার্থক্য ছিল বাংলাদেশে আর পাকিস্তানে, তার প্রায় সবই ঘুচিয়ে দেওয়া হয়েছে। সমান তালে মৌলবাদের চাষ হচ্ছে দু’দেশের মাটিতে। বাংলাদেশ মরিয়া হয়ে উঠেছে প্রমাণ করতে, যে, ‘মুসলমান মুসলমান ভাই ভাই। দ্বিজাতিতত্ত্বের ব্যাপারটা ভুল ছিল না, ঠিকই ছিল’।
দেশের সংবিধান বদলে গেছে। পাকিস্তানি সেনাদের আদেশে উপদেশে যে বাঙালিরা বাঙালির গলা কাটতো একাত্তরে, পাকিস্তান থেকে আলাদা হতে চায়নি, দেশ স্বাধীন হওয়ার পর খুব বেশি বছর যায়নি, দেশের তারা মন্ত্রী হয়েছে, দেশ চালিয়েছে। আমার মতো গণতন্ত্রে সমাজতন্ত্রে সমতায় সততায় বিশ্বাসী একজন লেখককে দেশ থেকে দিব্যি তাড়িয়ে দেওয়া হয়েছে কিছু ধর্মীয় মৌলবাদীকে খুশি করার জন্য। যারা তাড়ালো, যারা আজও দেশে ঢুকতে দিচ্ছে না আমাকে, সেই রাষ্ট্রনায়িকারা ওপরে যা-ই বলুক, ভেতরে ভেতরে নিজেরাও কিন্তু মৌলবাদী কম নয়।
বিজয় উৎসব করার বাংলাদেশের কোনও প্রয়োজন আছে কি? আমার কিন্তু মনে হয় না। আসলে ঠিক কিসের বিরুদ্ধে বিজয়? পাকিস্তান আর বাংলাদেশের নীতি আর আদর্শ তো এক! সত্যিকার বিরোধ বলে কি কিছু আছে আর? পাকিস্তানের ওপর নয়, বরং বাংলাদেশের বেশিরভাগ মানুষের রাগ একাত্তরের মিত্রশক্তি ভারতের ওপর। বিজয় দিবস করে খামোকাই নিজের সঙ্গে প্রতারণা না করলেই কি নয়! ১৬ ডিসেম্বরে নয়, বাংলাদেশ বরং ১৪ই আগস্টে
উৎসব করুক। পাকিস্তানের জন্মোৎসব করুক ঘটা করে। পাকিস্তানের সঙ্গে মিলে মিশে রীতিমত জাঁকালো উৎসব। মুসলমানের উৎসব। বিধর্মীদের থেকে মুসলমানদের আলাদা করার ঐতিহাসিক উৎসব। বিজয় উৎসব।
तसलिमा नसरीन ने भारत विभाजन के जिम्मेदार लोगों के विजन पर सवाल उठाये हैं पहली बार। यह गौर तलब है और उनने जो पूछा है यह सवाल कि बांग्लादेश में धर्मनिरपेक्ष, समाजवादी ,लोकतांत्रीक राष्ट्र का मतलब कितने लोग समझते हैं, उन सवालों का जवाब हम भी सोच लें तो बेहतर। तसलिमा ने बांग्लादेश के छोटा पाकिस्तान बन जाने के हालात बयां किये हैं और बताया है कि मातृभाषा को राष्ट्रीयता बनाकर जिस देश को भारत की सक्रिय मदद से आजादी मिली है, वह किस तरह इस्लामी बांग्लादेशी राष्ट्रीयता में तब्दील हो गयी है और इसके नतीजे क्या निकल रहे हैं।
बांग्लादेश की जगह भारत को रखें और इस्लामी की जगह हिंदू राष्ट्रवाद को रखें तो भारत में क्या चल रहा है, वह तस्वीर निकल कर आयेगी।
सच तो यह है कि अमन चैन के बिना बाजार का विस्तार भी नहीं होता। केसरिया के चलते कारपोरेट राज भी आकुल व्याकुल होने लगा है।
O- पलाश विश्वास
साभार : http://www.hastakshep.com/intervention-hastakshep/%E0%A4%AC%E0%A4%B9%E0%A4%B8/2014/12/10/%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%98-%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B0-%E0%A4%98%E0%A4%B0-%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%AA%E0%A4%B8%E0%A5%80-%E0%A4%85%E0%A4%AD%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%BE?utm_source=feedburner&utm_medium=feed&utm_campaign=Feed%3A+Hastakshepcom+%28Hastakshep.com%29

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