अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस के पीछे का अर्थशास्त्र

संयुक्त राष्ट्र ने भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के योग सम्बन्धी उस प्रस्ताव को 177 देशों के समर्थन से अनुमति दे दी है जिसमें उन्होंने योग को वैश्विक स्तर पर अमल में लाये जाने की अपील की थी। स्मरण रहे अपने अमेरिकी दौरे के दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने 27 सितम्बर को संयुक्त राष्ट्र के समक्ष प्रस्ताव पेश करते हुए कहा था कि वह योग को ‘अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस’ के रूप में मनाने पर विचार करे। उन्होंने इसके लिए 21 जून की तारीख भी सुझाया था। मोदी के उस प्रस्ताव को 12 नवम्बर को स्वीकृति देते हुए संयुक्त राष्ट्र द्वारा यह कहा गया है कि योग को पूरी दुनिया में फैलाना व स्थापित करना जरूरी है।
संयुक्त राष्ट्र में योग को इतनी बड़ी स्वीकृति मिलने से भारत में हर्ष
की लहर दौड़ गयी है, खासकर हिंदुत्ववादियों में। इस घोषणा में संघ के योग्य
प्रचारक और हिन्दू धर्म-संस्कृति की बड़ी विजय देखकर वे हर्ष से झूम
उठे हैं। इस घटना को प्रधानमंत्री मोदी की व्यक्तिगत उपलब्धि मानते हुए
हर्ष लोकसभा और राज्यसभा में मनाया गया है। चैनलों पर तो इस घोषणा के बाद
हर्ष का सैलाब ही आ गया था। जब चारों तरफ इसे लेकर हर्ष ही हर्ष था तो वह
योग गुरु रामदेव ही कैसे चुप रहते, जो हाल ही में देश भर में पांच लाख
आचार्य कुलम बनाने की घोषणा कर चुके हैं। संयुक्त राष्ट्र की घोषणा से
आह्लादित योग गुरु ने इसका सारा श्रेय मोदी को देते हुए कह दिया कि इसके
जरिये उन्होंने अपने वैश्विक नेतृत्व का लोहा मनवा लिया है। बहरहाल
अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस की घोषणा निश्चय ही बौद्धिक संपदा के मामले में
निचले पायदान पर पड़े भारत के लिए एक बड़ी उपलब्धि कही जा सकती है, लेकिन
इसके पीछे योग की महत्ता कम,
अंतर्राष्ट्रीय अर्थनीति की भूमिका बड़ी है, जिसे समझने के लिए 24 जुलाई, 1991 के बाद के हालात का सिंहावलोकन कर लेना होगा।
स्मरण रहे भारत में जो आज निजीकरण, उदारीकरण की अर्थनीति मोदी युग
में चरम की ओर अग्रसर है,वह नरसिंह राव की उस अर्थनीति का विस्तार है,जिसकी
शुरुआत उन्होंने पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के साथ मिलकर 24 जुलाई,
1991 को की थी। नरसिंह राव के उस निर्णय के पीछे था मंडल का आतंक। लोग नहीं
भूले होंगे कि जब 7 अगस्त, 1990 को मंडल की रिपोर्ट प्रकाशित हुई तब जहां
सवर्णों की काबिल संतानों ने आत्मदाह और राष्ट्र की संपदा दाह का सिलसिला
शुरू किया, वहीँ सबसे बड़े सवर्णवादी संगठन की ओर से राम जन्मभूमि मुक्ति
आन्दोलन छेड़ दिया गया जिसके फलस्वरूप राष्ट्र की हजारों करोड़ की संपदा और
असंख्य लोगों की प्राण-हानि हुई। किन्तु मंडल के बाद जब नरसिंह राव के हाथ
में सत्ता आई, उन्होंने राष्ट्रवादियों की भांति इसका दृष्टि-कटु विरोध
करने के बजाय आरक्षण को कागजों तक सिमटाये रखने के लिए 24 जुलाई, 1991 को
भूमंडलीकरण की अर्थनीति (रणनीति) ही वरण कर लिया।
नरसिंह राव की मुक्त अर्थनीति के सहारे
बहुराष्ट्रीय कम्पनियां भारत में प्रवेश तो कर गयीं परन्तु यहाँ उनके
सामने मुंह बाये खड़ी थी एक विराट समस्या-‘विलासिता की सामग्रियां के उपभोग
लायक मन का अभाव’। हिन्दू धर्मशास्त्रों के उपदेश-सादा जीवन उच्च विचार;
इच्छाओं की उत्पत्ति ही दुखों का कारण है अतः इच्छाओं का हनन करो-के कारण
भारत में इच्छा हननकारियों की ऐसी फ़ौज खड़ी थी जिसमें विदेशों के जींस,
फास्टफूड, पेय पदार्थ, गाड़ी, सुगन्धि, क्रीम इत्यादि तरह-तरह के उत्पादों
का इस्तेमाल करने लायक मन नहीं था। अतः जागतिक सुख से विमुख और परलोक सुख
के अभिलाषी भारतीयों को इहलोक सुख की ओर आकृष्ट करने के लिए पश्चिम के
विकसित देशों ने माध्यम बनाया अंतर्राष्ट्रीय सौन्दर्य प्रतियोगिताओं को।
इस माध्यम से अन्यान्य क्षेत्रों में विश्व श्रेष्ठ व्यक्तित्वों से कंगाल
भारतीयों को सुष्मिता सेन (1994,मिस यूनिवर्स),ऐश्वर्या राय(1994,मिस
वर्ल्ड),रुचिता मल्होत्रा (1995,मिस एशिया पैसिफिक रनर्स अप), डायना हेडेन
(1997, मिस वर्ल्ड ), युक्ता मुखी (1999, मिस वर्ल्ड), लारा दत्ता (2000,
मिस यूनिवर्स), प्रियंका चोपड़ा (2000, मिस वर्ल्ड) के रूप में मिल गए ढेरों
विश्व चैम्पियन। यह भुवन मोहिनी सुंदरियाँ जो खायेंगी-पियेंगी,
ओढ़ेंगी-पहनेंगीं उनके कृतित्व और व्यक्तित्व से धन्य भारतीय उसका अनुसरण
करेंगे ही, यह सोच कर पश्चिम वालों ने आवश्यक योग्यता की अनदेखी करते हुए
ढेरों भारतीय लड़कियों को विश्व सुंदरी के खिताब से नवाज दिया। इस रास्ते एक
दशक के मध्य ही भारत में उपभोक्तावाद का अच्छा खासा प्रसार होने के बाद
उन्होंने भारतीय सुंदरियों की ओर से आंखे फेर लिया। उसके बाद भारत में फिर
से विश्व सुंदरियों का अकाल पड़ गया।
नरसिंह राव ने मंडल की घोषणा से आजिज आ
कर जिस अर्थनीति की शुरुआत की, उस पर देश को सरपट दौड़ाने में स्वदेशी के
परम हिमायती राष्ट्रवादी अटल बिहारी अपने गुरु नरसिंह राव से भी बहुत आगे
निकल गए। अब भारत के नवीनतम राष्ट्रवादी प्रधानमंत्री ने भूमंडलीकरण की
अर्थनीति को आगे बढ़ाने में न सिर्फ गांधीवादी नरसिंह राव बल्कि महान
राष्ट्रवादी अटल बिहारी वाजपेयी को भी बहुत पीछे छोड़ देने का मन बना लिया
है।
पुराने राष्ट्रवादी मजदूर नेता दत्तो पन्त ठेंगड़ी की डेढ़ दशक पूर्व
बार-बार दी गयी इस चेतावनी-अब जो आर्थिक परिस्थितियां बन या बनाई जा रही है
उसके फलस्वरूप हमें विदेशियों का गुलाम बन जाना पड़ेगा । तब हमें स्वाधीनता
संग्राम की भांति विदेशियों से आर्थिक मुक्ति का एक और नया स्वाधीनता
संग्राम लड़ना पड़ेगा- के आईने में यदि कोई मोदी की अर्थनीति पर गौर करेगा तो
उसे साफ़ दिखाई पड़ेगा कि वह सुरक्षा तक से जुड़े क्षेत्रों में बेइंतहा
एफडीआई के जरिये देश पर विदेशियों के आर्थिक प्रभुत्व के रास्ते पूरी तरह
मुक्त कर दिए हैं।
जो व्यक्ति देश की आर्थिक प्रभुसत्ता की अनदेखी कर विदेशीयों के लिए के रेड
कारपेट बिछाने की अभूतपूर्व तैयारी कर रहा है, उसकी छवि अंतर्राष्ट्रीय
जगत में बलिष्ठतर करना जरूरी है, यह सोच कर ही परोक्ष रूप से अमेरिका के
प्रभाव में कार्य कर रहे संयुक्त राष्ट्र ने अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस की
घोषणा कर दिया है। इस घोषणा के बाद जिस तरह रामदेवों को मोदी के वैश्विक
नेतृत्व का नए सिरे से अहसास हुआ है उससे तय है कि प्रभुत्वशाली देशों ने
अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस के जरिये अपना इच्छित लक्ष्य पा लिया है।
अंतर्राष्ट्रीय जगत में उनकी धाक ज्यों-ज्यों बढ़ती जाएगी, इस देश को
आर्थिक रूप से गुलाम बनाने की विदेशियों की परिकल्पना त्यों-त्यों परवान
चढ़ती जाएगी।
O- एच. एल. दुसाध
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