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हमारी राष्ट्रीय थाती गीता और ताज
सर्वसम्मत रूप से स्वीकार्य श्रीकृष्ण के राजनीतिक और सामाजिक विचारों के दर्शन का संकलन गीता और मुगल बादशाह शाहजहां के प्रेम का बेजोड़ शिल्प ताजमहल राष्ट्रीय थाती और गौरव हैं। इसे लेकर शायद ही किसी की असहमति हो। वोट के लिए धार्मिक प्रतीकों के रूप में सियासत करना कितना जायज है? धर्म निरपेक्ष और लोकतांत्रिक व्यवस्था में यह किसी दृष्टि से सुसंगत दिखाई नहीं देता।
विदेश मंत्री सुषमा स्वराज और उत्तर प्रदेश के भाजपा अध्यक्ष लक्ष्मीकांत वाजपेयी ने क्रमश: गीता को राष्ट्रीय ग्रंथ घोषित किए जाने और ताज को प्राचीन मंदिर करार दिए जाने की बात कह कर एक बार सियासी माहौल को फिर गरमा दिया है। विकास की सियासत की अगुवाई करने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मंत्रिमंडल सहयोगी सुषमा स्वराज और उत्तर प्रदेश भाजपा अध्यक्ष ने जिन बातों को उठाया है, क्या वे नरेंद्र मोदी की विकास की अवधारणा के अनुरूप हैं? महत्त्वपूर्ण तो यह है कि मोदी एक संवैधानिक और लोकतांत्रिक व्यवस्था के नेतृत्वकर्ता हैं, जिसमें आस्था व्यक्त करते हुए वे प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे हैं। मोदी ने अटल बिहारी वाजपेयी की तरह देश की बहुलतावादी संस्कृति के प्रति कई मौकों पर आस्था भी जताई है। सुषमा स्वराज और लक्ष्मीकांत वाजपेयी ने गीता और ताज को लेकर जिस तरह की मांग उठाई है, वह अच्छे दिनों के वादों के विरुद्ध जाती है। एक बात स्पष्ट रूप से समझ लेनी चाहिए कि 21वीं सदी की वैश्वीकरण की नव संस्कृति में तेजी से ताकत के रूप उभरते भारत के सामने आज भी धर्म की सियासत एक बड़ी चुनौती है और राष्ट्रीय एकता अखंडता के लिए खतरा बनी हुई है।
यह बहुलतावदी देश सही मायनों में तभी विकास कर सकता है, जब हम धर्म, जाति और लिंग के भेदभाव से ऊपर उठेंगे। धर्म और सियासत का घालमेल भारतीय समाज को गुमराह कर आर्थिक शक्तियों के हितों को ही साधने का काम कर रहा है और जनता के बुनियादी सवालों को हाशिए पर धकेल रहा है। हमारे सियासतदानों को यह नहीं भूलना चाहिए कि भूख का मसला रोटी से हल होगा और बेरोजगारी का मसला रोजगार से हल होगा। अशिक्षा शिक्षा से दूर होगी और बीमारी इलाज से। कानून के इकबाल से शांति, सुरक्षा तय होगी। इन सवालों का समाधान जाति और धर्म की सियासत से नहीं होगा। धर्म और जाति की सियासत करने वालों को यह नहीं भूलना चाहिए कि शिक्षा और सूचना के विस्तार के साथ जीवन से जुड़े बुनियादी सवाल तेजी से मुखर हो रहे हैं। यह अलग बात है कि विभिन्न राजनीतिक विचारधारों के नाम पर उनमें अभी बिखराव है या नेतृत्वकर्ताओं का अहं उसे व्यापक रूप में संगठित नहीं होने दे रहा। क्योंकि कुछ लोगों के लिए सियासत भी एक मुनाफे का व्यापार है। सेवा के नाम पर मेवा खाने की मानसिकता अपने लाभ के लिए किसी भी हद तक जा सकती है। चाहे उसके लिए समाज को ही क्यूं न बांटना पड़े। धर्म की सियासत करना आसान है, पर धर्म के मर्म को समझना आसान नहीं। धर्म का सर्वग्राही अर्थ तो परमार्थ और कल्याण है। नेता राजनीति के धर्म को ही समझ लें उसी में देश और समाज की भला है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजनीति का धर्म है जनसेवा। हमारे नेताओं ने राजनीति के इस धर्म को समझा है? समाज की शांति को आघात पहुंचाना किस तरह का धर्म है?
आज सियासी संरक्षण में अपराधी कानून का चीर हरण कर दुर्योधनी अट्टहास करते हैं। गीता इन्हीं विकारों के खिलाफ लड़ने का कृष्ण का राजनीतिक और सामाजिक दर्शन है। गीता अंधी व्यवस्था के प्रति युद्ध को अवश्य संभावी बनाती है। आधुनिक लोकतांत्रिक और संवैधानिक व्यवस्था में गीता का यह संदेश कितना सार्थक रहेगा? क्योंकि गीता हक के लिए संघर्ष का संदेश देती है। इस पर विचार होना चाहिए। कुरुक्षेत्र में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को संदेश देते हुए कर्म को ही धर्म बताया है। गीता के पहले श्लोक में ही रणभूमि कुरुक्षेत्र को धर्म क्षेत्र कहा गया है और अपनों के मोह से ग्रस्त अर्जुन के मोह का शमन कर युद्ध करने के लिए प्रेरित किया गया है। गीता में कृष्ण के संघर्ष से जुड़े सम्यक सरोकारों की यथार्थवादी अभिव्यक्ति है। यह कृष्णकालीन पथभ्रष्ट सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था के प्रति विद्रोह ग्रंथ है।मौजूदा दौर में देश का राष्ट्रीय ग्रंथ तो संविधान है। जिसमें समानता और धर्मनिरपेक्षता का संकल्प निहित है। छह दशक के इसी ग्रंथ से व्यवस्था का संचालन हो रहा है। रही बात ताज महल की तो वह देश की ही नहीं विश्व की धरोहर बन चुका है। ताजमहल को प्राचीन मंदिर के विवाद का सियासी विषय बनाकर विश्व समुदाय को क्या संदेश देना चाहते हैं? सच्चा राष्ट्रवाद तो इस बात में है कि हम ऐसा कोई भी काम न करें जो विश्व पटल पर हमारी अनेकता में एकता की गौरवशाली सनातन परंपरा को आघात पहुंचाता हो। यह तो देखिए कि आर्थिक उदारीकरण की बाजारवादी संस्कृति देश की नई पीढ़ी को तेजी से पाश्चात्य रंग में रंग रही है। प्रधानमंत्री कश्मीर की चुनावी सभा में कश्मीरियों के विश्वास को हासिल करने के लिए एंड्रॉयड्र फोन की बात कर रहे हैं। भाजपा का यह सियासी विरोधाभास कहीं आने वाले दिनों में उसके लिए परेशानी का सबब न बन जाए। अतीत के सबक के तौर पर भाजपा को राम मंदिर की सियासत का चरम और उसके बाद लंबे समय तक जनता द्वारा की गई उसकी उपेक्षा को नहीं भूलना चाहिए।
उत्तर प्रदेश के मिशन 2017 को लक्ष्य कर भाजपा नेता जिस तरह की सियासत धार्मिक प्रतीकों के बहाने कर रहे हैं, उस पर गंभीर चिंतन करने की जरूरत है। जब मोदी कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक विकास की बात कर रहे हैं, तब उन्हीं की पार्टी के नेताओं की इन राजनीतिक क्षुद्रताओं का कोई महत्त्व नहीं रह जाता।
O- विवेक दत्त मथुरिया
साभार:http://www.hastakshep.com/intervention-hastakshep/issue/2014/12/11/%E0%A4%97%E0%A5%80%E0%A4%A4%E0%A4%BE-%E0%A4%94%E0%A4%B0-%E0%A4%A4%E0%A4%BE%E0%A4%9C
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