व्यक्ति अपने जीवन में यदि किसी के प्रति सकारात्मक सोच बना लेता है तो उसे
आए-पास के सभी लोग, उसकी संस्कृति और राष्ट्र-राज्य के लिए एक नकारात्मक सोच बनने लगती है। यही
कुछ राजेन्द्र यादव जी के साथ भी था। निश्चित रूप में राजेन्द्र यादव ‘हंस’ के माध्यम से अनेक विमर्शों, मुद्दों को अहमियत दी और उसे एक सकारात्मक जमीन प्रदान की।
लेकिन गाहे-बगाहे ‘हंस’ की संपादकीय में तर्क से ज्यादा कुतर्क दिखाई देता था। कुछ
लोगों का मानना है कि ये सारे कुतर्क वे चर्चा के केंद्र रहने के लिए गढ़ते या देते
थे। इसलिए इसको नजर अंदाज कर देना चाहिए। लेकिन ऐसे लोगों को यह भी समझना चाहिए कि
एक ही बात को बार-बार कहने पर उसका प्रभाव समाज पर धीरे-धीरे पड़ने लगता है वह और
सत्य-सा लगने लगता है। उदाहरण स्वरूप 1857 की क्रांति के बाद अंग्रेज़ गलत तरीके से हिन्दू-मुस्लिम
भाई-चारे को एक दूसरे के लिए खतरा बता कर व्यापक पैमाने पर प्रचार-प्रसार किया, जो बाद के समय में दोनों एक दूसरे के लिए खतरा बन गए जिसकी
परिणति हमें भारत-पाकिस्तान विभाजन के रूप में दिखाई देता है।
खैर, मैं अपने मुद्दे पर राजेन्द्र यादव की एक संपादकीय (जून,
2006) से आता हूँ। संपादकीय कुछ इस प्रकार
से था- “उन्होंने (अंग्रेज़) हमें ‘भारत’ दिया। उसकी सरहदें तय कीं और कुशल ‘राष्ट्र-राज्य’ की स्थापना की। ..... मुझे यह भी लगता है कि अंग्रेजों जैसा
सुगठित और सुव्यवस्थित शासन न होता तो भारत जैसा लद्दद, निकम्मे, भविष्यहीन समाज को सामंती चंगुल से निकल पाना असंभव था।
शायद सारा परिदृश्य सऊदी अरब, नेपाल, अफगानिस्तान या अफ्रीका जैसा ही होता। ..... अंग्रेजों ने
हमें दो-ढाई सौ साल बुरी तरह लूटा और ऐसे- ऐसे जघन्य अत्याचार किए गए अत्याचार
बौने दिखाई दें। ..... मगर हम भी जानते हैं कि शासन चलाने के लिए कानून और
व्यवस्था बनाए रखना जरूरी है। ..... हम शायद दुनिया के सबसे बड़े कृतघ्न देश होंगे
जो कहे कि अग्रेजों ने हमें आधुनिक नहीं बनाया।” ये कुछ उदाहरण हैं जो राजेन्द्र यादव ‘हंस’ की संपादकीय में लिखे थे।
दरअसल राजेन्द्र यादव जिस तरह से अंग्रेज़ शासन
पद्धति को भारत के लिए लाभकारी मान रहे थे, वह एक मानसिक गुलामी है। इतिहास पर बिना दृष्टि डाले भारत
को लद्दद,
निकम्मे और भविष्यहीन बताने वाले राजेन्द्र यादव को क्या यह
भी पता नहीं था कि जिस देश में वे रह रहे हैं या थे उसी देश ने विश्व के सामने एक
से बढ़कर एक नायाब खोजे दी हैं। गणित से लेकर विज्ञान तक यहाँ तक ब्रह्मांड के
रहस्यों से पूरी दुनियाँ को अवगत कराया। माना अंग्रेजों ने सामंतवाद के चंगुल से
भारत को निकाला लेकिन वहीं उसने जमींदारी प्रथा लागू किया जो अपने आप में यह एक ‘नया सामंतवाद’ था। इतिहास गवाह है कि सामंतवादी प्रथा ने न केवल जातियों
को मजबूत किया बल्कि निचली जातियों का जिस रूप में शोषण किया वह आज भी रोये खड़े कर
देना वाले हैं।
मुगल काल के पहले
से ही भारत वस्त्र उद्योग और मसाले की उत्पादकता में अग्रणी था। दुनिया के कई
देशों में भारत के बने कपड़े और मसाले भेजे जाते थे। भारतीय औपनिवेशिक काल में भी
इग्लैंड में भारतीय वस्त्रों की मांग ज्यादा थी। कारण स्पष्ट था कि यहाँ के बने
कपड़े वहाँ कि अपेक्षा काफी अच्छे होते थे। इसलिए बाद के वर्षों में भारतीय कपड़ों
के आयात पर इग्लैंड में अत्यधिक मात्रा में कर लगा दिया गया जिससे वे काफी महगें
हो गए। क्या यह भारत पिछड़ेपन की निशानी थी?
संपादकीय में
राजेन्द्र यादव अंग्रेजी शासन पद्धति की हिमायत करते हुए कहते हैं- ‘अंग्रेजों ने भारत पर जो कुछ भी अत्याचार किए वह सब कानून
और व्यवस्था बनाए रखने के लिए।’ ये तर्क राजेन्द्र यादव जी के लिए सही होंगे, लेकिन कम से कम मैं और मेरे जैसे तमाम लोग
इन चीजों को सिरे से खारिज कर देंगे। राजेन्द्र यादव जिस शासन पद्धति को बनाए रखने
की बात इस संपादकीय में कर रहे थे, वह तो उसी प्रकार हुआ जिस प्रकार से अमेरिका-ब्रिटेन इराक, अफगानिस्तान में अपनी सेनाओं को भेज कर कर रहा है, क्योंकि इसके पीछे इन देशों का तर्क भी कमोवेश राजेन्द्र
यादव ही जैसा है। (ये देश इन राष्ट्रों में अपनी सेनाओं को भेज कर वह शांति
व्यवस्था कायम करने की बात करते हैं लेकिन आज कौन नहीं जानता है कि अमेरिका और
ब्रिटेन की गिद्ध आँखें वहाँ की अकूत खनिज सम्पदा पर है।)
इसी संपादकीय के
अंत में वे भारत को आधुनिक बनाने में अंग्रेजों की प्रशंसा करते हैं। (हम शायद
दुनिया के सब से कृतघ्न देश होंगे जो कहें कि अंग्रेजों ने हमें आधुनिक नहीं
बनाया।) राजेन्द्र यादव तो रहे नहीं लेकिन कुछ लोग जो आने वाले समय में उनका वारिस
मान कर बैठे हैं क्या बताने का यह जहमत उठाएंगे कि अंग्रेजों ने हमें किस तरह से
आधुनिक बनाया? औपनिवेशिक
गुलामी,
सत्ता का गंदा खेल (फूट डालो राज करो), अंग्रेजों की शासन पद्धति का एक हिस्सा था, क्या यही आधुनिकता थी? राजेन्द्र यादव शायद यह भूल गए कि असली आधुनिकता लोकतंत्र
में हैं। क्या अंग्रेजों द्वारा किया गया शासन लोकतंत्र का ही एक हिस्सा है?
1857 से लेकर 1947 ई. तक की लड़ाई किस लोकतंत्र के लिए लड़ा गया? लोकतंत्र की प्राप्ति के लिए हजारों, लाखों की संख्या में लोगों को सरे आम शूली पर लटका दिया गया
या फिर गोलियों का शिकार होना पड़ा, राजेन्द्र यादव क्या इसी लोकतंत्र की बात कर रहे थे? अगर जीवित रहे होते या उनके पद चिन्हों पर चलने वाले लोग
यदि यह तर्क देते हैं कि अंग्रेजों ने हमें रेल, डाक (लाए), शिक्षा जैसी चीजों का विकास किया तो उनके अंदर इतिहास-बोध
की कमी या इतिहास को गलत तरीके से व्याख्या करने की लत लग गई है। अंग्रेजों ने बड़े
पैमाने पर रेल पटरियों का जाल बिछाया इससे इनकार नहीं किया जा सकता, लेकिन उसके पीछे भी व्यावसायिक कारण थे। दरअसल
अंग्रेजों ने मालगाड़ी का विकास किया था न की सवारी गाड़ी का, जिससे भारत का कच्चा माल बड़े पैमाने पर इग्लैंड ले जा सकें।
इसी प्रकार से डाक, तार की सुविधा भी अंग्रेजों के लिए भी लाभकारी था न कि आम लोगों के लिए। रही
बात शिक्षा कि तो सन 1947 के बाद भारत की कुल आबादी की मात्र 10 प्रतिशत ही जनता शिक्षित हो पाई थी, बाकी 90 प्रतिशत अशिक्षित थी, यहीं चीजे राजेन्द्र यादव की निगाह में आधुनिक था और इन्हीं
कारणों से वे अंग्रेज़ प्रशंसक भी थे। राजेन्द्र यादव जैसे लोगों का तर्क ये भी है
कि अंग्रेजों ने हमारे यहाँ से सती प्रथा जैसे अमानवीय कृत्यों के खिलाफ कानून
बनाया,
लेकिन वे शायद यह भूल रहे हैं कि अंग्रेजों ने यहाँ की कई जातियों
को चोर,
असभ्य एवं जंगली माना जो आज भी समाज के मुख्य धारा से नहीं
जुड़ पाए। क्या इन चीजों का खुलासा राजेन्द्र यादव ‘ हंस’ की संपादकीय में किया (कम से कम मुझे तो नहीं मालूम), संभवत: नहीं। यह उनका ब्रिटिश शासन के प्रति अंध श्रद्धा है
या फिर कुछ और?
पूरे संपादकीय को
पढ़ने के बाद यह निष्कर्ष निकलता है कि राजेन्द्र यादव को औपनिवेशिक सत्ता से कोई
खतरा नहीं था। वे उपनिवेशवाद को भारत के लिए एक बेहतर शासन प्रणाली मानकर विश्लेषण
करते हैं जो इतिहास को नजर अंदाज करने के बराबर है। इस संपादकीय में राजेन्द्र
यादव द्वारा भारत और उसके लोगों के प्रति जो तर्क (हालांकि ये कुतर्क के अलावा कुछ
नहीं है) दिए गए हैं, क्या चर्चा के केंद्र में रहने के लिए दिए गए हैं या ब्रिटिश हुकूमत के प्रति
वफादारी का एक हिस्सा है।
इधर के कुछ वर्षों में
उन्होंने स्त्री विमर्श को ‘देह विमर्श’ के
दायरे में लाकर सीमित करने की जो कोशिश की है, क्या वास्तविक रूप में यह स्त्री विमर्श का एक हिस्सा है? मैं इस बात का समर्थन नहीं करता कि स्त्रियों के देह पर
पुरुषों का वर्चस्व या अधिकार हो और न ही इस बात को स्वीकार करने के पीछे कोई तर्क
है कि स्त्रियाँ पुरुषों के समान स्वछंद और पुरुषवाचित गुणों को अपनाकर पुरुषों
जैसा व्यवहार करने लगें। स्त्री समस्या केवल ‘देह मुक्ति’ नहीं है। उसके अन्य कारण भी है जहां उसे सर्व प्रथम मुक्त
होने की जरूरत है। अभी कुछ महीने पहले यही राजेन्द्र यादव स्त्री विमर्श से आगे बढ़ते
हुए समाज में गोपन समझी जाने वाली ‘स्त्री योनि’ (इस शब्द की जगह उन्होंने एक दूसरे शब्द का प्रयोग किया था
जिसे वे ‘बुरा’ शब्द से उत्पत्ति मानते थे) की जिस तरह से व्याख्या की थी
वह कम से कम राजेन्द्र यादव के मुख से शोभा नहीं देता, जो हमेशा स्त्री के उत्थान (एक मानसिक
छलावा था) की बाते किया करते थे। राजेन्द्र यादव स्त्री मुक्ति को मध्यवर्ग की
स्त्री मुक्ति तक ही सीमित कर सकें। उन्होंने भारत की पैसठ प्रतिशत उन महिलाओं को
छोड़ दिया जो आज भी सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़ी हुई हैं। वहाँ यौनिकता की
मुक्ति की चाहत उतनी नहीं है जितनी कि अन्य चीजों के लिए। बहरहाल स्त्री को समाज के
मुख्य धारा से जोड़ने की जरूरत है। स्त्री विमर्श स्त्री को समाज के केंद्र में
लाने के लिए है न कि स्त्री यौनिकता की मुक्ति के लिए। स्त्री यौनिकता की मुक्ति
स्त्री विमर्श का एक माध्यम हो सकता है लेकिन स्त्री समस्याओं की जड़ नहीं। वह जब
तक आर्थिक और सामाजिक रूप से मजबूत नहीं होगी तब तक विमर्श आधारित यह मुद्दा अपने
सही मुकाम पर नहीं पहुँच सकता। इस बात को राजेन्द्र राजेन्द्र यादव जी को समझने की
जरूरत थी।
राजेन्द्र यादव जिस
लेंस के चश्में से भारत और उसकी सभ्यता, संस्कृति और उसकी आधुनिकता तथा स्त्री स्वतन्त्रता की बात
कर रहे थे वह भारतीय इतिहास को सही अर्थों में न समझने का परिचायक था या कुतर्क करके
अपने आप को चर्चा के केंद्र में रहने की मानसिक छटपटाहट। (यह लेख रवीन्द्र त्रिपाठी के एक आलेख को आधार
बनाकर लिखा गया है। इसके लिए मैं उनका शुक्रगुजार हूँ।)
अरविन्द कुमार उपाध्याय
arvindkumar.hindi@gmail.com
+91-8796729610
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