इंडियाज़ डॉटर – सेक्स, वॉइलेंस और वुमेन : बाज़ार का सबसे ज्यादा बिकाऊ माल
‘ इंडियाज़ डॉटर ’
एक ऎसी डॉक्युमेंट्री फिल्म है जो पूरी घटना को कुछ इस तरह बयान करती है कि
देखने वाले को यह भरोसा होने लगे कि गरीबी में ही अपराध की जड़ें घनी और
गहरी जमी हुई हैं, जबकि वास्तव में पूरी फिल्म सेक्स अपराध और औरत को
केंद्र में रखकर मजबूती से बांधे रखती है।
दरअसल 16 दिसम्बर 2012 में हुई बर्बरतापूर्वक हिंसा, बलात्कार और मौत की
घटना ने जहाँ देश भर में आक्रोश का लावा भर दिया, वहीं सडक से संसद तक
इन्साफ के लिए आक्रामक आवाजें गूँज उठीं। ‘हत्यारों को फांसी दो’
जैसे नारों के बीच घमासान जद्दोजहद ने कई दिनों तक युवाओं को जुर्म से लड़ने
की ऊर्जा दी। लोगों का हुजूम प्रशासनिक अमले पर हर तरह से भारी पड़ा। जिस
तरह दिल्ली और अनेक शहरों में लोग सड़कों पर झंडे, बैनर, पोस्टर, नारों और
गुनहगार के खिलाफ जोर आज़माइश करते हुए उतरे। उसे देखकर लगा कि अब यह
सिलसिला तभी थम सकता है जब कानूनी कार्रवाई फौरन हो और जनाक्रोश के पक्ष
में हो। आनन-फानन में ही सही मगर हुआ भी कुछ ऐसा ही।
जनाक्रोश को प्रभावी तरीके से पेश करती
मीडिया की तस्वीरें गवाह और ऐतिहासिक लड़ाई के लिए एक जरूरी दस्तावेज बनीं।
बेहद संवेदनशील मुद्दे पर गुस्से से भरे लोगों को समझाना कतई आसान न था। जुर्म के खिलाफ
संघर्ष देखने लायक था। लगा जैसे किसी बड़े राजनीतिक-सामजिक बदलाव के लिए
एकाएक जमीन तैयार हो चुकी है। जनाधार इतना प्रभावशाली और शक्ति-प्रदर्शन
इतना पुरज़ोर था कि मानो किसी ने थमे हुए बर्षों पुराने जज्बे की दबी आंच को
हवा दी हो। ऐसा लगने लगा कि यह धधकता लावा पिछड़े समाज को धकेलकर आगे निकल
जाने को आतुर हो उठा है।
एक युवा लड़की के साथ बलात्कार
और उसके बाद बर्बर हिंसा से हुई मौत ने हर खासोआम के दिल दहला दिए थे।
सड़कों में लबालब भरा जन शैलाब किसी बड़े विस्फोट की तरह देश के हर हिस्से
में जलजले सा फूटा था। फिर इस आक्रोश का नतीजा यह हुआ कि इस संजीदा मामले
में 17 दिनों के भीतर ही एफ़ाईआर दर्ज हुई और जघन्य अपराध करने वालों की
गिरफ्तारी हुई। फास्ट ट्रैक कोर्ट में सुनवाई चली और एक ऐतिहासिक फैसला
लिया गया। जिससे बलात्कार करने वाला हर गुनहगार घबरा जाय। कानून में फेरबदल
हुए। महिलाओं के शोषण और अत्याचार के खिलाफ अपराध को लेकर जरूरी संशोधन
कानून में किये गये।
इस पूरे मामले पर एक बड़ी विचित्र और रोचक
बात तब सामने आई, जब बीबीसी ने सरकार से अपराधी मुकेश सिंह का इंटरव्यू
लेने की इजाजत मांगी। और डॉक्यूमेंट्री फिल्म बनाने के लिए मंत्रालय
ने इजाजत दी। इस डाक्यूमेंट्री फिल्म का मकसद केवल नैतिक और सामाजिक
शिक्षा देना तो हरगिज़ नहीं रहा। मामला इससे भी कहीं अधिक गहरा और खलबली
पैदा कर रहा था। सवाल यह था कि इस फिल्म को हर कोई किस नजर से देखे।
फिल्म मेकिंग पूरी होने में दो साल का
वक्त लगा। यह डाक्यूमेंट्री फिल्म एक लडकी के साथ बर्बर तरीके से बलात्कार
और हत्या की घटना को लिए एक तयशुदा मुकाम की ओर बढ़ चली। इसमें एक बेहद
दिलचस्प मोड़ तब आया जब इसके रिलीज़ होने की बात उठी। यहीं से यह फिल्म एक
अनसुलझी बहस में बदल गई। एक बौद्धिक विमर्श शुरू हुआ। चाय की दुकानों से
लेकर संसद तक जोर पकड़ने वाला यह मामला कहाँ खत्म हो। इस तरह के सवाल खड़े
थे। इसका मुख्य प्रयोजन कौन बताये?
पूरी फिल्म रिलीज होने की घोषणा और रिलीज
के बाद से ही दर्दनाक अपराध की यह कहानी एक नये दौर के बदलाव भी साथ लिए
पारंपरिक सोच से लडती दिखी। नये प्रस्थान बिंदु भी गाहे-ब-गाहे दिखाई दिए।
नये समय के जनाक्रोश का रेखांकन भी हुआ… नई दिशा तय की। महिलाओं पर हो रहे
अत्याचारों के खिलाफ व्यवस्था में जरूरी बदलाव करने की जगह बनती दिख रही
थी। कानून में बदलाव के साथ कुछ सार्थक होने की तरफ एक संकेत साफ था। और एक
ख़ास हिदायत के साथ गहरी सुगबुगाहट, खलबली पैदा होने के खतरे भी थे।
इस डाक्यूमेंट्री फिल्म ने पूरी कहानी में
संवेदना और संचेतना के बीच संतुलन बिलकुल भी नहीं खोया। यह फिल्म अमूमन हर
इंसान की नस-नस में किसी तीखी चुभन के साथ एक रवानगी भरने को काफी थी। हर
वक्त एक ख्याल दिलो-दिमाग में भभकते सन्देश के साथ मौजूद था। फिल्म के
तकनीक और गुणवत्ता पक्ष में कहीं कोई कमी नहीं दिखाई दे रही थी। बहुत ही
सुलझे हुए तरीके से एक-एक चित्र जिन्हें उभारा गया था, बेहद तजुर्बे के साथ
परोसा गया था। उसमें हर टुकड़ा एक सामाजिक ढाँचे और आज़ाद ख्याल की तरह
शामिल था। मिलीजुली प्रतिक्रिया से कहीं ज्यादा और कहीं बेहतर तरीके से
प्रस्तुत फिल्म घटना को अंतिम हिस्से तक ले जाते हुए गहरी टीस छोड़ जाती है।
इसमें एक ओर संदेह पैदा होने की गुंजाइश भी लगातार बनी रहती है। वहीं
दूसरी तरफ किसी अनचाहे विशवास की पकड़ कतई ढीली नहीं होने पाती।
इस
डाक्यूमेंट्री पर भारत सरकार ने जिन व्यावसायिक शर्तों के साथ बनाने की
इजाजत दी थी। फिल्मनिर्माता ने उसे फिल्म पूरी होने पर मानने से इनकार कर
दिया। और जनता के सामने इसे यू-ट्यूब पर चुनौतीपूर्ण तरीके से प्रसारित
किया। यहाँ से यह मामला अब एक नये फलसफे की ओर बढ़ा। जहाँ बहस और तर्क के
हज़ारों रास्ते खुले थे। सरकार, जनता और फिल्ममेकर इन तीनों के बीच एक
तनावपूर्ण सम्बन्ध, सम्वेदनशील बहस और तार्किक संवाद यहीं से शुरू हुआ।
यहाँ यह समझना जरूरी है कि आखिर हम किधर खड़े हों, जिससे सब कुछ साफ़ तौर से
देखा परखा जा सके? मामला क्या सिर्फ फिल्म के पक्ष में या विपक्ष में होने
तक ही सीमित है। अगर ऐसा होता तो फिर किसी और तरह की बहस के लिए गुंजाइश ही
न रहती। मगर बात अब इससे कहीं आगे, बहुत दूर जा निकली है। इन्हीं मुद्दों
पर आधारित है एक नजरिया। उम्मीद है तमाम बातों को जानने के बाद सारी बहसें
एक निश्चित केंद्र तक लाई जा सकेंगी और पूरे मामले को किस तरह देखा जाय? यह
भी तय हो जाएगा।
जहां वास्तविक घटना राजधानी दिल्ली में एक
युवा लड़की की बर्बरता पूरक किये गये हमले और मौत से जुडी है वहीं फिल्म
में कई चेहरे और चरित्र उभरे हैं। और हर चरित्र अपनी ज़िन्दगी के कुछ ख़ास
पहलुओं को लेकर पूरी तैयारी के साथ रोचक अंदाज़ में उपस्थित है। पूरी फिल्म
में गुनहगार का चरित्र बेहद महत्वपूर्ण है वह अपने मनोवैज्ञानिक संरचना के
साथ आया है। उसने जो जिन्दगी जी है उसके कई कोण हैं। जबकि वास्तविक घटना
में बेपनाह दर्द से मौत का सफर तय करने वाली लड़की महत्वपूर्ण है। गुनहगार
फिल्म में किसी नायक की तरह जेल से अपनी आपबीती कहता है। वह वास्तविक घटना
का एक बिलकुल भिन्न पहलू पर सोचने लिए मानो दबाव बनाता है। कहें कि बड़ी
सहजता से भावशून्य बने रहने की अदाकारी करते हुए कामयाबी के साथ अपना पक्ष
रखता है। मानो उसके भावशून्य अभिनय पर और घटना पर सपाटबयानी के लिए
निर्माता का ख़ास जोर है। कहानी के भीतर कुछ अंश नाटकीय भी जोड़े गये हैं।
जिन्हें लेकर और कई तरह के सवाल, आशंकाएं और निश्चिन्ता लगातार बनी रहती
है।
हर चरित्र कहीं भी फिल्म में अतिवाद और अपराध के खिलाफ किसी जंग का ऐलान
करते हुए या फैसले के लिए जोर डालता नहीं दिखाई देता है। आखिर इसकी वजह
होगी? इसका कोई तो कारण होगा?
दरअसल यह
पूरी घटना एक ही तबके की हकीकत कुछ इस तरह बयान करती है कि देखने वाले को
यह भरोसा होने लगे। गरीबी में ही अपराध की जड़ें घनी और गहरी जमी हुई हैं।
जबकि वास्तव में पूरी फिल्म सेक्स अपराध और औरत को केंद्र में रखकर मजबूती
से बांधे रखती है।
इसकी वजह क्या है? यह जानना महत्वपूर्ण है।
एक
कारण तो यह है कि दुनिया भर में इस वक्त सबसे अधिक तेजी से अगर कुछ बेचा
जा सकता है तो वह हैं- सेक्स, औरत और अपराध। इन्हें हर तबके का अधिकाँश
हिस्सा अपनी हैसियत के हिसाब से कम से कम और अधिक से अधिक कीमत देकर उपभोग
करने की इच्छा रखता है। बाज़ार ने सेक्स, वाइलेंस और औरत को ऐसे उत्पाद के
बतौर उतारा है कि इसे हर तबका अपनी हैसियत के मुताबिक़ कीमत अदा करके आनंदित
हो सके।
ऐसे सामान को बेचने लायक ज्यादातर कारखाने
झुग्गी-झोपड़ियों से लेकर पंचसितारा होटलों और रिहायशी चकाचौंध से भरी
मंडियों की शक्ल में अमूमन हर शहर में मौजूद हैं। इन कारखानों से निकला
तैयार माल जब बाज़ार की रौनक बनता है तब लोग इन्हें हासिल करने की इच्छा से
भरे उपभोग का सुख पाने की चाहत रखते हैं। इंसान में इन्द्रिय-सुख की
इच्छाएं इतनी बलवती होती हैं कि बड़े से बड़े जोखिम के बावजूद इसे पाना एक
मकसद बनकर दिलोदिमाग पर हावी रहता है। इन उत्पादों या सामानों को
अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार बेपनाह मुनाफे के साथ कैसे इस्तेमाल करता है? यह
देखना दिलचस्प है।
बाज़ार इन्हें बेहद आसानी से एक निर्धारित
कीमत पर मुहैया कराने की ऎसी तरकीबें निकालता हैं जिसमें सामानों को बेचने
और बनाने वाले कारोबारी गुनहगार होकर भी बा-हैशियत अपना रूतबा बनाये रखते
हैं। वास्तव में इन मंडियों की तादाद बढना तब शुरू हुई जब तीसरे दर्जे के
मुल्कों ने दुनिया के मजबूत आर्थिक आधार वाले मुल्को से उदाररीकरण के तहत
समझौते किये। और बड़ी वैश्विक मंडियों के लिए जगह तलाशी।
ये मंडियां कैसे एक पारंपरिक मूल्यों वाले
मुल्क में चारो तरफ खुलती गई? क्या बाज़ार इन उत्पादों की खरीद फरोख्त करने
के लिए सरकार से किसी भी तरह अनुबंधित है? क्या कोई कानून इन उत्पादों की
खरीद पर रोक लगाने में कारगर साबित हुआ है? वो कौन लोग हैं जिन्हें इन
सामानों से बेशुमार मुनाफ़ा हो रहा है? ये किस तरह का बाज़ार है जो
परम्परावादी और आधुनिक तंत्र के किसी भी व्यापारिक अनुबंध से बिलकुल भिन्न
जमीन पर फल-फूल रहा है। ऐसे अनगिनत सवालों से भी निबटना होगा।
….. जारी
-डॉ. अनिल पुष्कर
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