Monday, 16 March 2015

बहुजनों की सक्रिय हिस्सेदारी के बिना असंभव है मुक्तबाजारी कारपोरेट फासीवाद के खिलाफ लड़ाई

मुक्तबाजारी फासीवाद की निरंकुश कामयाबी के पीछे बहुजनों का भगवाकरण है

फासिस्ट कारपोरेट संघ परिवार ने इस पूरी बहुजन कवायद को न सिर्फ समझा है बल्कि उसे सिरे से आत्मसात करके महाबलि बनकर खड़ा है और हम चुनिंदे लोग फासीवाद के खिलाफ चीख चिल्ला रहे हैं जबकि बहुजन समाज के आकार में जो सर्वहारा वर्ग है,  वह केसरिया केसरिया कमल कमल है।
आज मान्यवर कांशीराम जी की जयंती है।
जाहिर है कि जयंती पालन करने में बहुजन समाज सबसे आगे होता है। सुबह ही कर्नल बर्वे साहब ने याद दिलाया कि मान्यवर का जन्मदिन है आज। कर्नल साहेब से मौजूदा बहुजन आंदोलन और कारपोरेट फासीवाद के खिलाफ लड़ाई के सिलसिले में आर्थिक मुद्दों को लेकर अस्मिता के आर पार बहुजनों की लामबंदी की चुनौतियों पर लंबी बातचीत चली।
कर्नल साहब मानते हैं कि बहुजन कार्यकर्ता आऱ्थिक मुद्दों और कारपोरेट फासीवाद को समझते तो हैं,  लेकिन उनको गोलबंद करके प्रतिरोध की जमीन बनाने में हम कोई पहल नहीं कर पा रहे हैं।
पीसी खोला तो विद्याभूषण रावत और एचएल दुसाध के दो आलेखों के अलावा बहुजनों की ओर से तमाम पोस्ट देखने को मिले।
फेसबुक के स्टेटस पर पहला पैरा लगाते न लगाते हमारे मित्र डा. लेनिन का मंतव्य आ गयाः
Lenin Raghuvanshi Udit Raj ji kar rahe hai. Bina Neo Dalit movement Ke Kuchh nahi hoga
इधर महीनेभर से लागातार अस्वस्थ होने के कारण लिखने पढ़ने पर बिगड़ती सेहत ने अंकुश लगा दी है।
मान्यवर कांसीराम जी के महिमामंडन के लिए मेरे लिए कुछ भी लिखना संभव नहीं है। हम मौजूदा चुनौतियों के मुकाबले उनके बहुजन आंदोलन की प्रासंगिकता पर बात करना चाहेंगे जो कि मुक्तबाजारी फासीवाद से जूझने के लिए जरुरी भी है।
परसो शाम नई दिल्ली में हमारे मित्रों ने अन्वेषा की ओर से आयोजित संगोष्ठी में फासीवाद के खिलाफ राजनीतिक तौर पर सक्रिय संस्कृतिकर्म पर विचार विमर्श किया है।
एक तो नौकरी की आखिरी पायदान में हूँ, सेहत दगा देने लगी है और आगे नये सिरे से जिंदा रहने की तैयारी भी बड़ी चुनौती है। मैं दिल्ली या आसपास कहीं, यहाँ तक कि कोलकाता तक दौड़ लगाने की हालत में नहीं हूँ।
कविता कृष्णपल्लवी के लेखन से मैं हमेशा प्रभावित रहा हूँ और दिल्ली में इस आयोजन की वे संयोजक थी। संगोष्ठी में हमारे दो प्रिय कवि मंगलेश डबराल और विष्णु नागर हाजिर थे। सक्रिय लेखक कार्यकर्ता आशुतोष भी वहाँ थे। इसके अलावा वैकल्पिक मीडिया में सबसे जुझारु और सक्रिय हमारे दो साथी अमलेंदु और अभिषेक भी वक्ताओं में थे। कविता 16 मई के बाद के संयोजक और बेहतरीन समकालीन कवि रंजील वर्मा भी वहाँ थे।
कविता जी और हमारे दूसरे प्रतिबद्ध साथी मुझे माफ करें, इस गोष्ठी में दिल्ली में बसे संस्कृतिकर्मियों की जिस भागेदारी की मुझे उम्मीद थी, वह दिखी नहीं। राजनैतिक और वैचारिक वक्तव्यों से भी मुझे दिशा निकलती दीख नहीं रही है।
हमने सुबह सुबह अमलेंदु को फोन लगाया कि गोष्ठी में क्या कुछ हुआ और कुल कितने लोग और कौन लोग शामिल थे। उनसे आगे की योजनाओं पर चर्चा हुई और अपने मोर्चे को और संगठित और व्यापक बनाने पर लंबी चर्चा के साथ हस्तक्षेप को जारी रखने की फौरी चुनौती पर भी बात हुई।
मुझे भारी निराशा है कि हम कारपोरेट मुक्तबाजारी फासीवाद के खिलाफ इस लड़ाई के दायरे में पुराने परिचित और आत्मीय चेहरों को ही देख पा रहे हैं।
हम तो हस्तक्षेप की टीम का भी विस्तार चाहते हैं और चाहते हैं कि आर्थिक मुद्दों को हम बेहतर तरीके से संबोधित कर सकें।
संसाधनों और मदद का हाल यह है कि सिर्फ आर्थिक सूचनाओं को सही परिप्रेक्ष्य में बतौर समाचार लगाते रहने का उपाय नहीं है और एजंसियों की सेवा लेने के पैसे नहीं हैं। जबकि आर्थिक सूचनाएं वस्तुगत ढंग से तुरंत जारी किये बिना, लगों को सचेत किये बिना हम दरअसल कुछ भी नहीं कर सकते हैं।
हम कारपोरेट पत्रकार हैं नहीं और न हम कारपोरेट संस्कृतिकर्मी हैं। दरअसल हम पर अपने पिता और बहुजनों के पुरखों की विरासत का दबाव है कि हमें हर हाल में सीने पर जख्म खाकर भी पीठ दिखाना नहीं है और लड़ते जाना है। यह गांव बसंतीपुर के वजूद का मामला भी है जो हम पीछे हट नहीं सकते। वरना हालात यह है कि हम जिंदा रहने लायक भी नहीं हैं।
हमारे बच्चे अगर इस विरासत के प्रति तनिकों गंभीर होते या कमसकम आतमनिर्भर होते तो हम मदद की गुहार भी न लगाते। हमारी मजबूरी समझें। हम बहुजनों के संसाधनों की लूट भी रोक नहीं सके हैं और न उनको जनमोर्चा का हिस्सा बना सके हैं, इससे हम इतने असहाय हैं। वरना पेशेवर दक्षता तो इतनी कम से कम है कि वैकल्पिक मीडिया का कम से कम एक तोपखाना जारी रखें।
जेएनयू जामिया मिलिया में हमारे जो प्रतिबद्ध आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ हैं और जो सचमुच कारपोरेटमुक्त बाजारी फासीवाद के खिलाफ देश भर में किसी न किसी स्तर पर सक्रिय हैं और आर्थिक मुद्दों को संबोधित कर सकते हैं, वे लगातार लिखें तो हम यह बहस चला सकते हैं।
चूंकि आज कांशीराम जी का जन्मदिन भी है तो मैं शुरु से ही यह बताना चाहता हूँ कि मुक्तबाजारी फासीवाद की निरंकुश कामयाबी के पीछे बहुजनों का भगवाकरण है और इसे हम समझने से इंकार कर रहे हैं।
इसे समझे बिना और इसकी तोड़ निकाले बिना फासीवाद के खिलाफ लड़ाई हवा में लाठियां भांजने के सिवाय कुछ भी नहीं हैं, हमें ऐसा लिखना पड़ रहा है और इसके लिए हमारे प्रतिबद्ध और समझदार साथी हमें माफ करें।
फासीवाद का तिलिस्म अगर बहुजनों की धर्मोन्मादी पैदल सेना बन जाने से तामीर हो पााया है तो इस तिलिस्म के खिलाफ बहुजनों को लामबंद किये बिना सिर्फ वैचारिक और बौद्धिक सक्रियता से हम कारपोरेट केसरिया फासीवाद का जमीन पर हर्गिज मुकाबला कर नहीं सकते।
अन्वेषा की संगोष्ठी के आयोजकों की वैचारिक राजनीतिक आर्थिक समझ का मैं हमेशा कायल रहा हूँ। वे लोग हमसे कहीं ज्यादा प्रतिबद्ध हैं और सक्रिय भी हैं, लेकिन वे लोग कुल मिलाकर कितने लोग हैं।
फिरभी मुझे कहना ही होगा कि जिस मेहनकश सर्वहारा की बात हम लोग करते हैं, जिस वर्गीय ध्रुवीकरण के तहत गोलबंदी के जरिये हम राज्यतंत्र में बदलाव का मंसूबा बांधते हैं, उनके सामाजिक आधार और मौजूदा अवस्थान को समझे बिना हमारी लड़ाई शुरु ही नहीं सकती।
फासीवाद, सम्राज्यवाद, उत्पादन संबंधों, आर्थिक मुद्दों,  राजनीतिक और वैचारिक मुद्दों पर हमारे कामरेड शुरु से गजब के जानकार रहे हैं। लेकिन रिजल्ट फिरभी सिफर क्यों है, यह हमारी परेशानी का सबब है।
हम संसदीय वामपंथ की बात नहीं कर रहे हैं, बदलाव की लड़ाई में जो सबसे प्रतिबद्ध और ईमानदार लोग हैं, उनकी बात कर रहे हैं।
वैचारिक और राजनीतिक बहस के अलावा हरित क्रांति की शुरुआत और किसानों के जनविद्रोह के जमाने से लेकर अबतक फासिस्ट ताकतें लगातार मजबूत होती रही मेहनतकश सर्वहारा वर्ग के भगवेकरण की कामयाब राजनीति और रणनीति के तहत और उनके धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद के मुकाबले हम अभी लड़ाई की पहल भी नहीं कर सकें।
तो इसका सीधे सीधे मतलब है कि हमने न जनता के बीच जाने की तकलीफें उठायी हैं और जनता से सीखने की कोशिश की है। अप्रिय सत्य कहने के लिए माफ जरूर करें।
जनता के मौजूदा संकट.उसके खिलाफ नरसंहारी कारपोरेट फासीवादी अश्वमेध, उसकी बेदखली और उत्पदान प्रणाली,  संसाधनों और अर्थव्यवस्था से उसके निष्कासन का जिम्मेदार जनता को बताकर हम बौद्धिक लोग लेकिन अपनी हैसियत खो देने को कोई जोखिम उठा नहीं रहे हैं और फासीवाद हर किसी को शहीद भी नहीं बनाता।
हम महज जनता को शिक्षित करने का अहंकार जीते रहे हैं।
वातानुकूलित बंद सभागृहों से हम फासीवाद के खिलाफ लड़ ही नहीं सकते।
जो मीडिया का कारपोरेट तंत्र है, वहाँ फासीवाद के खिलाफ राजनीतिक और वैचारिक सोच को संप्रेषित करने के रास्ते बंद है।
इसीलिए हम हस्तक्षेप, समकालीन तीसरी दुनिया, समयांतर और वैकल्पिक मीडिया के तमाम मंचों को जीवित रखने के लिए जनहिस्सेदारी की बात बार बार कर रहे हैं।
हमारे प्रतिबद्ध लोग चाहे कितने समझदार और परिपक्व है, यह सिरे से बेमायने हैं अगर हम फासीवादी तिलिस्म में फंसे बहुसंख्य बहुजन मेहनतकश सर्वहारा वर्ग के वर्गीय ध्रुवीकरण की कोई सही और कारगर रणनीति बनाकर उसे जमीन पर अमली जामा पहनाने की कोशिश नहीं करते और कार्पोरेट केसरिया मुक्तबाजारी धर्मोन्मादी ध्रुवीकरण से तोड़कर मेहनतकश तबके को मुक्तिकामी सर्वहारा वर्ग में तब्दील नहीं कर सकते।
कल भी हमने लिखा है कि जो बहुजन पैदल सेनाएं हैं और उनके किसिम किसिम के रंगबाज सिपाहसालार हिंदुत्व के बजरंगी है, उन्हें मालूम ही नहीं है कि जिस विधर्मी अल्पसंख्यक भारत के खिलाफ धर्मोन्मादी ध्रुवीकरण फासिस्ट हिंदू साम्राजवाद के कारपोरेट ग्लोबल हिंदुत्व की पूंजी है, वह तबका उनका अपना खून है और उनसे कमसकम बहुजनों और मेहनतकशों का कोई वैमनस्य नहीं है।
धर्मांतरित बहुसंख्य लोग कृषि समुदायों की अछूत अंत्यज जातियां रही हैं और हिंदुत्व की जातिव्यवस्था जिनके लिए नर्क है। वे सारे लोग बहुजनसमाज के ही लोग हैं। उनका हमारा खून एकचआहे।
यह नर्क कितनी भयंकर है,  उसे समझने के लिए बाबासाहेब के बौद्धमयभारत बनाने के महासंकल्प से पहले दिये गये वक्तव्यको उसकी पूरी भावना के साथ समझना बेहद जरुरी है।
बाबासाहेब ने कहा था, मैं हिंदू होकर जनमा हूँ, लेकिन मैं हिंदू रहकर मरुंगा नहीं।
बाबासाहेब का यह वक्तव्य भारत का वर्गीय सामाजिक यथार्थ है, जिसे समझने से हम अब भी इंकार कर रहे हैं।
इसी सिलसिले में यह ध्यान दिलाना बेहद जरूरी है कि भारत में तमाम आदिवासी और किसान विद्रोहों में बहुजन नायकों की भूमिका निर्णायक रही है, जो साम्राज्यवाद और सामंतवाद के खिलाफ बहुजन समाज की लामबंदी से संभव हुए।
हम अपनी क्रांति के बौद्धिक उत्सव में इतिहास की उस निरंतरता को बनाये रखने में इसलिए भी नाकाम रहे कि बहुजनों के वर्गीय ध्रुवीकरण के लिए जिन सामाजिक यथार्थों से हमें टकराने की दरकार थी, हम उससे टकराने से बचते रहे हैं।
कांशीराम जी ने बहुजनों के लिए सत्ता में भागीदारी का रास्ता तैयार किया है, इसके लिए हम उन्हें महान नहीं मानते हैं क्योंकि सत्ता या सत्ता की चाबी से हमें कुछ लेना देना नहीं है।
फासिस्ट कारपोरेट सत्ता में हिस्सेदारी तो सामंती और साम्राज्यवादी ताकतों को मजबूत करने का ही काम है।
बाबासाहेब डा.भीमराव अंबेडकर ने कभी जाति अस्मिता की बात की हो या जाति अस्मिता के आधार पर समता और सामाजिक न्याय की बात की हो, हमें नहीं मालूम। वे शुरू से आखिर तक डीप्रेस्ड क्लास की बात कर रहे थे।
बाबासाहेब के राजनीति और आर्थिक विचारों को लेकर विवाद हो सकते हैं, उनके रचे संविधान की भी आलोचना कर सकते हैं, लेकिन डीप्रेस्ट क्लास के अंबेडकरी सामाजिक यथार्थ को नजरअंदाज करके और अंबेडकरी जाति उन्मूलन के एजंडा के आधार पर बहुजनों को अस्मिता मुक्त जाति मुक्त मुक्तकामी मेहनतकश सर्वहारा वर्ग में तब्दील करने की राजनैतिक वैचारिक चुनौती का हम कितना निर्वाह कर पाये, इसकी समीक्षा भी अनिवार्य है।
कांसीराम के मुकाबले बाबासाहेब का कद और योगदान को किसी भी स्तर पर रखा नहीं जा सकता। लेकिन यह ऐतिहासिक सच है कि भारते के डीप्रेस्ड क्लास को बाबासाहेब किसी भी स्तर पर संगठित नहीं कर पाये। विचारक और मनीषी बाबा साहेब बहुत बड़े हैं, लेकिन बतौर संगठक उनका कृतित्व बेहद कम है।
इसे मानने में किसी को ऐतराज नहीं होना चाहिए कि कांशीराम जी ने अपनी सांगठनिक दक्षता से बहुजन समाज को आकार ही नहीं दिया,  उसे संगठित करके राजनीतिक अंजाम तक भी पहुंचाया।
बामसेफ का गठन ही बहुत बड़ा क्रांतिकारी काम रहा है। लेकिन बामसेफ आखिरकार धनवसूली,  मसीहा पैदा करने वाली मशीन और सामाजिक जनजागरण के बजाय विशुद्ध घृणा अभियान में जो तब्दील हुआ, उसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि कि बामसेफ में फिर दूसरा कोई कांसीराम नहीं हुआ।
बामसेफ के तहत गोलबंद बहुजनों की ताकत और संभावनाओं को, जाति अस्मिता को वर्गीय ध्रुवीकरण में बदलने और सवर्णों के खिलाफ अंध घृणा के बजाय उसे सामंती और साम्राज्यवादी सत्ता वर्चस्व के खिलाफ खड़ा कर पाने की चुनौती हम मंजूर नहीं कर सकें।
बामसेफ को बहुजनों के जल जंगल जमीन नागरिकता आजीविका के हक हकूक की लड़ाई का मोर्चा हम बना नहीं सकें और आर्थिक मुद्दों पर बहस हम तेज कर सकें और बहुजनों की आंखें खोलकर उन्हें फासिस्ट कारपेरट वर्ण वर्चस्व के मनुस्मृति राज का असली चेहरा दिखा पाये हैं।
इसके लिए बामसेफ के लोग उतने जिम्मेदार नहीं हैं जितने कि बामसेफ के बाहर तमाशबीन जमीन से कटे वैचारिक और प्रतिबद्ध समूह। उन्होंने बहुजनों को संबोधित करने की कोई कोशिश ही नहीं की और जाति वर्चस्व के तहत वे बहुजनों से अस्पृश्यता का रंगभेदी अमानविकआचरण करते हुए सिर्फ अपनी मेधा और बौद्धिकता, अपनी कुलीनता का ढोल बजाने का काम करते रहे। यही उनकी राजनीति है, जिसका सामाजिक यथार्थ से कोई वास्ता नहीं है।
बहरहाल, जिस जाति की वजह से बहुजनों की नर्कदशा है, बामसेफ उसी जाति को मजबूत करता रहा और जाति वर्चस्व और जाति संघर्ष के जरिये मान्यवर कांशीराम का बहुजन समाज बिखरता रहा।
अछूतों की राजनीतिक गोलबंदी को चूंकि वैचारिक औरक बौद्धिक लोगों ने समझने की कोशिश ही नहीं की तो बहुजनों से संवाद के हालात कभी बने नहीं हैं।
बेहद निर्मम है यह सामाजिक यथार्थ कि भारत में बहुजन,  अल्पसंख्यक और अछूत सिर्फ वर्णवर्चस्वी मनुस्मृति रंगभेदी सवर्ण हेजेमनी का वोट बैंक है।
और यही लोकतंत्र है जिसका फासीवादी कायाकल्प इस मसामाजिक यथार्थ की तार्किक परिणति है क्योंकि इस लोकतंत्र में बहुजनों, अल्पसंख्यकों और अछूतों का, महिलाओं का भी कोई हिस्सा नहीं है।
इसके विपरीत फासिस्ट कारपोरेट संघ परिवार ने इस पूरी बहुजन कवायद को न सिर्फ समझा है बल्कि उसे सिरे से आत्मसात करके महाबलि बनकर खड़ा है और हम चुनिंदे लोग फासीवाद के खिलाफ चीख चिल्ला रहे हैं जबकि बहुजन समाज के आकार में जो सर्वहारा वर्ग है, वह केसरिया केसरिया कमल कमल है।
पलाश विश्वास
साभार:http://www.hastakshep.com/intervention-hastakshep/ajkal-current-affairs/2015/03/16/%E0%A4%AE%E0%A5%81%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%AC%E0%A4%BE%E0%A4%9C%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A5%80-%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%AA%E0%A5%8B%E0%A4%B0%E0%A5%87%E0%A4%9F-%E0%A4%AB%E0%A4%BE%E0%A4%B8?utm_source=feedburner&utm_medium=feed&utm_campaign=Feed%3A+Hastakshepcom+%28Hastakshep.com%29

 

फासीवाद के साहित्यिक-सांस्‍कृतिक प्रतिरोध्‍य के ऐतिहासिक अनुभव, उनका वैच‍ारिक पक्ष और समका‍लीन सन्‍दर्भ

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फासीवाद के साहित्यिक-सांस्‍कृतिक प्रतिरोध्‍य के ऐतिहासिक अनुभव, उनका वैच‍ारिक पक्ष और समका‍लीन सन्‍दर्भ
'अन्‍वेषा' की ओर से 13 मार्च की शाम दिल्ली में आयोजित विचार-गोष्‍ठी में जुटे विभिन्‍न लेखकों-पत्रकारों और संस्‍कृतिकर्मियों के बीच इस बात पर आम सहमति बनी कि देश में बढ़ते फासीवादी ख़तरे को पीछे धकेलने के लिए आज लेखकों-कलाकारों-बुद्धिजीवियों को अभिव्‍यक्ति के सारे ख़तरे उठाकर सामने आना होगा।

फासीवाद के साहित्यिक-सांस्‍कृतिक प्रतिरोध्‍य के ऐतिहासिक अनुभव, उनका वैच‍ारिक पक्ष और समका‍लीन सन्‍दर्भ

फासीवाद – उभार प्रतिरोध्‍य है, यदि हम अतीत की राख में दबी चिनगारियों को हवा दे सकें!
अध्‍यक्ष मण्‍डल और साथियो,
अपने अंधकारमय समय की सबसे प्रत्‍यक्ष, सबसे आसन्‍न ख़तरे की चुनौती से प्रेरित होकर हमने इस विचार गोष्‍ठी का विषय तय किया है।
बेर्टोल्‍ट ब्रेष्‍ट के प्रसिद्ध नाटक ‘आर्तुरो उई का प्रतिरोध्‍य उत्‍थान’ (रेजिस्टिबुल राइज़ ऑफ आर्तुरो उई) से कुछ पंक्तियाँ उधार लेकर मैं अपनी बात शुरू करूँगी:
‘हालाँकि कुछ लोग अभी भी इतिहास को वैसे ही ले सकते हैं जैसा वे उसे पाते हैं,
आप लोगों में से ज्‍यादातर लोग परवाह नहीं करते याद दिलाये जाने की।
अब देवियो और सज्‍जनो, निश्‍चय ही यह दिखाता है कि
उभर आये फोड़ों को ज़रूरत है सटीक निदान की
जो व्‍यक्‍त किया गया हो किसी घुमावदार भाषा में नहीं
बल्कि ऐसी सीधी-सपाट भाषा में जो गू को गू ही कहती हो।’ 
हमारे अपने देश में आज जिन लोगों से अपने सभी सांस्‍कृतिक-साहित्यिक उपकरणों के जरिए फासिस्‍ट बर्बरता का मुखर प्रतिरोध करने और इसकी कीमत चुकाने के लिए तैयार रहने की अपेक्षा की जाती है, उनके बीच जैसी अवसरवादी चालाकियों, ठण्‍डी तटस्‍थताओं, बेरहम-असम्‍पृक्‍तताओं, बेशर्म दुरंगेपन और घिसी-पिटी अनुष्‍ठानधर्मिता ने घुसपैठ कर ली है, उसे देखते हुए सबसे पहले यही ज़रूरत शिद्दत के साथ महसूस होती है कि हम भी किसी घुमावदार भाषा में नहीं, बल्कि बेलागलपेट भाषा में गू को गू कहें, गलाज़त को गलाज़त कहें, बर्बरता को बर्बरता कहें और हिन्‍दुत्‍ववादी कट्टरपंथियों को फासिस्‍ट कहें।
यूरोप में फासिस्‍टी काली आँधी जब तमाम विभ्रमग्रस्‍त लोगों की उम्‍मीदों को झुठलाते हुए, उन्‍हें हैरानी में डालते हुए, अपना कहर बरपा करने की शुरुआत कर चुकी थी, उस समय साहित्‍य-चिन्‍तक वाल्‍टर बेन्‍यामिन ने लिखा था, ”हमारे सामने जो चीजें घटित हो रही हैं वे 20वीं सदी में अभी भी सम्‍भव हैं, इस बात पर मौजूद हैरानी दार्शनिक नहीं है। यह हैरानी समझने की शुरुआत नहीं है, जब तक कि यह इस बात की समझ न हो कि इस हैरानी को जन्म देने वाली इतिहास दृष्टि खारिज किये जाने के काबिल है” (इतिहास-दर्शन विषयक स्‍थापनाएं)। आज इक्‍कीसवीं सदी में भी न केवल भारत में बल्कि पूरी दुनिया के स्‍तर पर तरह-तरह की नवफासिस्‍ट शक्तियों और आन्‍दोलनों के उभार की आम प्रवृत्ति के रूप में जो चीज़ घटित हो रही है, उस पर हैरानी उसी को होगी जिसके पास एक वैज्ञानिक इतिहास-दृष्टि नहीं है, और विश्‍व-पूंजीवादी अर्थतंत्र के गतिविज्ञान की सुसंगत समझदारी नहीं है।
निश्‍चय ही हम एक नये फासिस्‍ट उभार के ही ऐतिहासिक गवाह बन रहे हैं। यह हूबहू बीसवीं शताब्‍दी के तीसरे-चौथे दशक के फासिज़्म का दुहराव नहीं है। वह फासिज़्म पूँजीवाद के जिस संकट की ज़मीन पर पैदा हुआ था वह आवर्ती चक्रीय क्रम में पूँजीवाद को सताते रहने वाले संकट का ही एक रूप था, बस ख़ास बात यह थी कि वह उस समय तक के इतिहास की विकटतम मन्‍दी थी जिसे महामन्‍दी का नाम दिया गया था। आज पूँजीवाद लगातार थोड़ा उबरते और फिर डूबते हुए दीर्घकालिक मन्‍दी के जिस दौर से गुज़र रहा है उसे विश्‍व अर्थव्‍यस्‍था का ढाँचागत संकट और ‘टर्मिनल डिज़ीज़’ कहा जा रहा है। संकट के इस दौर में आम तौर पर बुर्जुआ जनवाद और नग्‍न धुर-दक्षिणपंथी बुर्जुआ तानाशाही के बीच की विभाजक रेखा कुछ धूमिल पड़ गई है, आम तौर पर राज्‍य के आचरण और सामाजिक ताने-बाने के भीतर बुर्जुआ जनवाद के तत्‍व छीजते-सिकुड़ते चले गये हैं और आम तौर पर उन्‍नत से लेकर पिछड़े तक — सभी बुर्जुआ समाज फासिस्‍ट संगठनों और फासिस्ट आन्‍दोलनों के फलने-फूलने के लिए ज़्यादा उर्वर होते चले गये हैं। अर्थव्‍यवस्‍था पर वित्तीय पूँजी का निर्णायक वर्चस्‍व और नव-उदारवादी नीतियों पर अमल के लिए जनसमुदाय पर लगातार दबाव बनाने की ज़रूरत — ये दो चीज़ें बुर्जुआ जनवाद के क्षरण-विघटन और नव-फासिस्‍ट उभारों के पीछे बुनियादी कारक तत्‍व हैं। बीसवीं शताब्‍दी की अपेक्षा एक फर्क यह भी है कि मौजूदा फासिज़्म साम्राज्‍यवाद और देशी पूँजीवाद के हाथों में थमी ज़ंजीर से बँधे कुत्ते की भूमिका में है। गत शताब्‍दी में फासिस्‍ट उत्‍पात का मुख्‍य क्षेत्र विकसित पूँजीवादी विश्‍व था। इस बार पूर्व उपनिवेशों के पिछड़े पूँजीवादी समाजों में इसका उभार अधिक प्रचण्‍ड है। आज अनेक कारणों से किसी महाविनाशकारी विश्‍वयुद्ध की सम्‍भावना न्‍यूनातिन्‍यून है, लेकिन फासिस्‍ट शक्तियाँ जहाँ भी हैं वहाँ धार्मिक-नस्‍ली-नृजातीय-राष्‍ट्रीय अल्‍पसंख्‍यक आबादी के विरुद्ध लगातार ‘लो इंटेन्सिटी वारफेयर’ चला रही हैं, उनका सामाजिक पार्थक्‍य बढ़ाकर ‘घेट्टोकरण’ कर रही हैं, उन्‍हें लगातार आतंक के साये में जीने को मजबूर कर रही हैं और बीच-बीच में ‘गुजरात 2002′ से लेकर मुज़फ़्फ़रनगर तक को अंजाम दे रही हैं। साथ ही वे वह सब भी कर रही हैं जिसके प्रतिनिधि उदाहरण ‘आईएस’ और ‘बोको हरम’ हैं।
सत्ता में हों या न हों, इन ताकतों का कहर लगातार जारी है। सत्ता में न रहते हुए ये ताकतें मज़दूर आन्‍दोलनों को धर्म के आधार पर बाँटकर भीतर से तोड़ने का और सीधे-सीधे उनके खिलाफ़ गुण्‍डा वाहिनियाँ उतारने का काम करती हैं और सत्ता में आने पर नवउदारवादी नीतियों को फैसलाकुन ढंग से लागू करते हुए हर प्रतिरोध को राजकीय दमनतंत्र से कुचलने में ज़्यादा फैसलाकुन रुख अपनाती हैं। भारत आज इसका प्रतिनिधि उदाहरण है। भाजपा सत्ता में न रहे तब भी हिन्‍दुत्‍ववादी ताकतें अपना खेल जारी रखेंगी। इनको पीछे धकेलने और शिकस्‍त देने का सवाल चुनावी हार-जीत का सवाल है ही नहीं। एक फासिस्‍ट परिघटना के रूप में, यह एक धुर-प्रतिक्रियावादी सामाजि‍क-राजनीतिक आन्‍दोलन है जिसे कैडर-आधारित फासिस्‍ट सांगठनिक तंत्र के जरिए तृणमूल स्‍तर से खड़ा किया गया है। एक कैडर-आधारित क्रान्तिकारी सांगठनिक तंत्र के जरिए तृणमूल स्‍तर से ईंट-ईंट जोड़कर एक क्रान्तिकारी सामाजिक-राजनीतिक आन्‍दोलन खड़ा करके ही इसकी रीढ़ तोड़ी जा सकती है। फासिज़्म के विरुद्ध यह लड़ाई लम्‍बी होगी। सामरिक मामलों में जैसा छापामार युद्ध या बैरिकेडों का युद्ध या ‘मोबाइल वारफेयर’ होता है, यह वैसी नहीं होगी बल्कि ‘पोज़ीशनल वारफेयर’ जैसी होगी। संघ परिवार के अनुषंगी संगठन निम्‍न मध्‍य वर्ग ही नहीं, मज़दूर बस्तियों तक में अपनी नियमित सांस्‍कृतिक गतिविधियों और सांस्‍कृतिक संस्‍थाओं के रूप में अपनी खन्‍दकें खोदे हुए हैं और अपने बंकर बनाये हुए हैं। हर फासिस्‍ट धारा की तरह हिन्‍दुत्‍ववादी फासिस्‍ट भी मिथकों को ‘कॉमन सेंस’ के रूप में स्‍थापित करते हैं, ”स्‍वर्णिम अतीत” की वापसी का प्रतिक्रियावादी युटोपिया देते हैं, धर्म को संस्‍कृति और राष्‍ट्र का मुख्‍य संघटक बताते हैं, ”हिन्‍दू संस्‍कृति की अवनति” और ”मुसलमानों के हावी हो जाने” के हौवे का ‘फेटिश’ के रूप में इस्‍तेमाल करते हैं,और लगातार अन्‍धराष्‍ट्रवादी उन्‍माद को हवा देते रहते हैं। आम फासिस्‍ट प्रवृत्ति का ही अनुसरण करते हुए अपने वैचारिक-राजनीतिक वर्चस्‍व को स्‍थापित करने की लड़ाई ये मुख्‍यत: संस्‍कृति के दायरे में लड़ते हैं तथा जनसमुदाय को ‘मिथ्‍या चेतना’ देने और इतिहसबोध के भ्रष्‍टीकरण का काम मुख्‍यत: सांस्‍कृतिक-शैक्षिक उपकरणों के जरिए करते हैं। जब राज्‍य का सांस्‍कृतिक-शैक्षिक तंत्र इनके हाथों में आ जाता है तो मामला और संगीन हो जाता है।
हम फासिज्‍म के विरुद्ध अपने संघर्ष को प्रभावी तभी बना सकते हैं जब हम भी नियमित सांस्‍कृतिक गतिविधियों, वैकल्पिक सांस्‍कृतिक संस्‍थाओं और पारम्‍परिक से लेकर नये कला माध्‍यमों का सहारा लेकर संस्‍कृति के मोर्चे पर विचारों की लड़ाई में फासिस्‍टों से आमने-सामने का मोर्चा लें। हमें अपने सांस्‍कृतिक कामों की संकुचित और काफी हद तक कुलीनतावादी हो चुकी चौहद्दियों को तोड़ना होगा। हमें आम जनता तक पहुँचने और आम जनता को सांस्‍कृतिक तौर पर संगठित करने के नये रास्‍ते, तरीके और उपकरण ईजाद करने होंगे, हमें अनुष्‍ठानधर्मी, पैस्सिव और रक्षात्‍मक रुख का परित्‍याग करना होगा और जवाबी मोर्चे खोलने होंगे, हमें सांस्‍कृतिक मोर्चे के कामों की जड़ीभूत धारणा से मुक्‍त होना होगा, हमें इस विभ्रम से छुटकारा पाना होगा कि सूफी और निर्गुण भक्ति आन्‍दोलन की धार्मिक सहिष्‍णुता, गांधीवादी धार्मिक मानवतावाद, नेहरूवादी खोखली-उथली तार्किकता या सामाजिक जनवादी सुधारवादी रवैये के सहारे फासिस्‍टों का सामाजिक आधार कमजोर किया जा सकता है या उन्‍हें पीछे धकेला जा सकता है।
इन्‍हीं सन्‍दर्भों में पिछली शताब्‍दी में फासिज्‍़म के विरुद्ध साहित्यिक-सांस्‍कृतिक प्रतिरोध के सिद्धान्‍त और व्‍यवहार की जो समृद्ध अनुभव-सम्‍पदा है, उससे आज काफी कुछ सीखा जा सकता है और यह बेहद ज़रूरी है कि हम ऐसा करें। हमें फासिज्‍़म की सांस्‍कृतिेक रणनीति और उसकी प्रतिकारी रणनीति के बारे में ब्रेष्‍ट, अर्न्स्‍ट ब्‍लॉख, वाल्‍टर बेन्‍यामिन , लुकाच आदि द्वारा प्रस्‍तुत विचारों से सीखना होगा, हमें 1920-30 के दशकों के यूरोप के मज़दूर वर्गीय संगीत आन्‍दोलन जैसी चीज़ों से सीखना होगा, और यही नहीं, हमें दुनिया की तमाम तानाशाहियों के विरुद्ध लेखकों-कलाकारों द्वारा चलाये गये संघर्षों से भी सीखना होगा। और सिर्फ सीखना ही नहीं होगा, बल्कि जनता के जीवन और संघर्षों से उनके जुड़ाव, उनके सा‍हस और उनकी कुर्बानियों से प्रेरणा भी लेनी होगी, क्‍योंकि सच्‍चे और ईमानदार कलाकार सीधे-सादे लोग होते हैं। प्रेरणा लेने लायक चीज़ों से प्रेरणा लेने में उनका अहं आड़े नहीं आता, न ही उन्‍हें शर्म महसूस होती है।
अन्‍त में मैं एक बार फिर वाल्‍टर बेन्‍यामिन को याद करना चाहूँगी। उन्‍होंने लिखा था:
”केवल उसी इतिहासकार को अतीत में से उम्‍मीद की चिनगारियों को हवा देने का वरदान प्राप्‍त होगा जो पुरज़ोर ढंग से इस बात का क़ायल है कि दुश्‍मन यदि जीत गया तो उससे हमारे मर चुके लोग भी सुरक्षित नहीं बचेंगे। और इस दुश्‍मन ने फ़तहमन्‍द होना अभी बन्‍द नहीं किया है।”
आज हमारे देश में भी उम्‍मीद की चिनगारियों को वही लेखक-कलाकार-संस्‍कृतिकर्मी हवा दे सकेगा जिसे वास्‍तव में फासिज़्म की आगे बढ़ती धारा के सारे भयंकर नतीजों का अहसास होगा। यह सही है कि यहाँ भी दुश्‍मन ने फ़तहमन्‍द होना अभी बन्‍द नहीं किया है। लेकिन ब्रेष्‍ट के बहुचर्चित नाटक का जैसाकि सन्‍देश था, आर्तुरो उई का उत्‍थान प्रतिरोध्‍य था। भारत में भी फासिज़्म के नये आर्तुरो उई का उत्‍थान अप्रतिरोध्‍य कत्तई नहीं है।
–कविता कृष्‍णपल्‍लवी
(‘फासीवाद के साहित्यिक-सांस्‍कृतिक प्रतिरोध्‍य के ऐतिहासिक अनुभव, उनका वैच‍ारिक पक्ष और समका‍लीन सन्‍दर्भ‘ — इस विषय पर विगत 13मार्च, 2015 को सम्‍पन्‍न ‘अन्‍वेषा’ की विचार-गोष्‍ठी का विषय-प्रवर्तन करते हुए दिया गया वक्‍तव्‍य)
साभार :http://www.hastakshep.com/intervention-hastakshep/ajkal-current-affairs/2015/03/16/%E0%A4%AB%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%80%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%A6-%E0%A4%95%E0%A5%87-%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BF%E0%A4%95-%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%82?utm_source=feedburner&utm_medium=feed&utm_campaign=Feed%3A+Hastakshepcom+%28Hastakshep.com%29

 

Sunday, 8 March 2015

हमारी चिंता में क्यों नहीं है ‘ स्त्री असभ्यता ‘ !

स्त्री असभ्यता की संस्कृति के निर्माण में पुंसवाद की निर्णायक भूमिका है

‘ स्त्री असभ्यता ‘ हमारी चिंता में क्यों नहीं है ! 

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर विशेष-

औरत सभ्य होती है,लेकिन औरत के अंदर अनेक ऐसी आदतें,परंपराएं और मूल्य हैं जो उसे असभ्यता के दायरे में धकेलते हैं। औरत को संयम और सही नजरिए से स्त्री के असभ्य रूपों को निशाना बनाना चाहिए। असभ्य आयाम का एक पहलू है देवीभाव । औरत को देवीभाव में रखकर देखने की बजाय मनुष्य के रुप में,स्त्री के रुप में देखें तो बेहतर होगा। औरत में असभ्यता कब जाग जाए यह कहना मुश्किल है लेकिन असभ्यता के अनेक रूप दर्ज किए गए हैं। खासकर औरत के असभ्य रूपों की स्त्रीवादी विचारकों ने खुलकर चर्चा की है। हमें भारतीय समाज के संदर्भ में और खासकर हिन्दू औरतों के संदर्भ में उन क्षेत्रों में दाखिल होना चाहिए जहां पर औरत के असभ्य रूप नजर आते हैं।
औरत की असभ्य संस्कृति के निर्माण में पुंसवाद की निर्णायक भूमिका है। इसके अलावा स्वयं औरत की अचेतनता भी इसका बहुत बड़ा कारक है। मसलन्, जब कोई लड़की शिक्षित होकर भी दहेज के साथ शादी करती है, दहेज के खिलाफ प्रतिवाद नहीं करती तो वह असभ्यता को बढ़ावा देती है। हमने सभ्यता के विकास को शिक्षा, नौकरी आदि से जोड़कर इस तरह का स्टीरियोटाइप विकसित किया है कि उससे औरत के सभ्यता के मार्ग का संकुचन हुआ है।
हमारी शिक्षा लड़कियों को सभ्य कम और अनुगामी ज्यादा बनाती है। औरत सभ्य तब बनती है, जब वह सचेतन भाव से सामाजिक बुराईयों के खिलाफ जंग करती है। औरत की जंग तब तक सार्थक नहीं हो सकती जब तक हम उसे आम औरत के निजी जीवन तक नहीं ले जाते। हमारे सभ्य समाज की आयरनी यह है कि वह सभ्य औरत तो चाहता है लेकिन उसे सभ्य बनाने के लिए आत्मसंघर्ष करने की प्रेरणा नहीं देता। मसलन्, औरतों में दहेज प्रथा के खिलाफ जिस तरह की नफरत होनी चाहिए वह कहीं पर भी नजर नहीं आती।
औरत सभ्य है या असभ्य है यह इस बात से तय होगा कि वह अपने जीवन से जुड़े बुनियादी सवालों और समस्याओं पर विवेकवादी नजरिए से क्या फैसला लेती है ? समाज ने स्त्री के लिए अनुकरण और निषेधों की श्रृंखला तैयार की है और उसे वैध बनाने के तर्कशास्त्र, मान्यताएं और संस्कारों को निर्मित किया है। इसके विपरीत यदि कोई औरत अनुकरण और निषेधों का निषेध करे तो सबसे पहले औरतें ही दवाब पैदा करती हैं कि तुम यह मत करो, ऐसा मत करो, परिवार की इज्जत को बट्टा लग जाएगा। औरत को बार-बार परिवार की इज्जत का वास्ता देकर असभ्य कर्मों को करने के लिए कहा जाता है। खासकर युवा लड़कियों के अंदर दहेज प्रथा के खिलाफ जब तक घृणा पैदा नहीं होगी, औरत को सभ्य बनाना संभव नहीं है। औरत सभ्य बने इसके लिए जरुरी है कि वह उन तमाम चीजों से नफरत करना सीखे जो उसको सभ्य बनने से रोकती हैं। दहेज प्रथा उनमें से एक है।
औरत के अंदर असभ्यता का आधार है अनुगामी भावबोध ,जब तक औरतें अनुगामी भावबोध को विवेक के जरिए अपदस्थ नहीं करतीं वे सभ्यता को अर्जित नहीं कर पाएंगी। समाज में अनुगामी औरत को आदर्श मानने की मानसिकता को बदलना होगा।
औरत को असभ्य बनाने में दूसरा बड़ा तत्व है, औरतों और खासकर लड़कियों का सचेतभाव से मूर्खतापूर्ण हरकतें करना, मूर्खता को वे क्रमशः अपने जीवन का आभूषण बना लेतीं हैं। तमाम किस्म के स्त्रीनाटक इस मूर्खतापूर्ण आचरण के गर्भ से निकलते हैं।स्त्री की मूर्खतापूर्ण हरकतें अधिकांश पुरुषों को अच्छी लगती हैं। फलतः लड़कियां सचेत रुप से मूर्खता को अपने जीवन का स्वाभाविक अंग बना लेती हैं। इससे स्त्री की छद्म इमेज बनती है। स्त्री सभ्य बने इसके लिए जरुरी है कि वह छद्म इमेज और छद्म मान्यताओं में जीना बंद करे।
छद्म इमेज का आदर्श है लड़कियों में फिल्मी नायिकाओं को आदर्श मानने का छद्मभाव। मसलन्, माधुरी दीक्षित ,रेखा,ऐश्वर्या राय में कौन सी चीज है जिससे लड़कियां प्रेरणा लेती हैं ? क्या सौंदर्य-हाव-भाव आदि आदर्श हैं ? यदि ये आदर्श हैं तो इनसे सभ्यता का विकास नहीं होगा। सौंदर्य के बाजार और प्रसाधन उद्योग का विकास होगा। यदि इन नायिकाओं के कैरियर और उसके लिए इन नायिकाओं द्वारा की गयी कठिन साधना और संघर्ष को लड़कियां अपना लक्ष्य बनाती हैं तो वे सभ्यता का विकास करेंगी और पहले से ज्यादा सुंदर दिखने लगेंगी। ये वे नायिकाएं हैं जिन्होंने अपने कलात्मक जीवन को सफलता की ऊँचाईयों तक पहुँचाने के लिए कठिन रास्ता चुना और समाज में सबसे ऊँचा दर्जा हासिल किया। अपने अभिनय के जरिए लोगों का दिल जीता।
कहने का अर्थ है कि फिल्मी नायिका से सौंदर्य टिप्स लेने की बजाय,उसके सौंदर्य का अनुकरण करने की बजाय, कलात्मक संघर्ष की भावनाएं और मूल्य यदि ग्रहण किए जाते तो देश में हजारों माधुरी दीक्षित होतीं! दुर्भाग्य की बात है कि हम यह अभी तक समझ नहीं पाए हैं कि औरत का सौंदर्य उसके शरीर में नहीं उसकी सभ्यता में होता है ! औरत जितनी सभ्य होगी वह उतनी ही सुंदर होगी। सभ्यता के निर्माण के लिए जरूरी है कि औरतें स्वावलंबी बनें। अनुगामी भाव से बचें।
 जगदीश्वर चतुर्वेदी
साभार ;http://www.hastakshep.com/intervention-hastakshep/views/2015/03/08/%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80-%E0%A4%85%E0%A4%B8%E0%A4%AD%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%A4%E0%A4%BE

 

इस्लामी आतंकवाद का दोषी कौन? भाग-2

7 जनवरी 2015 को फ्रांस की व्यंग्य पत्रिका ‘शार्ली हेब्दो’ के कार्यालय में घुस कर दो नकाबपोश आतंकवादियों ने अंधाधुंध पफायरिंग करते हुए आठ पत्रकारों सहित 11 लोगों को मौत के घाट उतार दिया। खुद को इस्लाम का ठेकेदार बताने वाले इन आतंकवादियों की शिकायत थी कि इस पत्रिका ने पैगंबर हजरत मोहम्मद के आपत्तिजनक कार्टून प्रकाशित किए थे। इससे कुछ ही दिन पूर्व पेशावर में तहरीक-ए-तालिबान नामक संगठन ने 150 स्कूली बच्चों का कत्ल कर दिया… दुनिया के अनेक देशों में पिछले कुछ वर्षों के दौरान इस्लामी आतंकवादियों द्वारा ऐसे अनेक हादसों को अंजाम दिया गया है और इस तरह की घटनाओं में लगातार वृद्धि होती जा रही है… पत्रकार  आंद्रे वेतचेक ने इस लेख में उन कारणों की तलाश की है जिन्होंने इस्लामी आतंकवाद को पैदा किया और पाला पोसा…
1950 और 1960 के दशक के प्रारंभिक वर्षों में अमेरिका, आस्ट्रेलिया और आम तौर पर पश्चिमी देश इस बात को लेकर बहुत परेशान थे कि आखिर क्या वजह है कि राष्ट्रपति सुकर्णों की प्रगतिशील और साम्राज्यवाद विरोधी नीतियां जनता के बीच इतनी लोकप्रिय हैं और क्यों इंडोनेशिया की कम्युनिस्ट पार्टी (पीकेआई) जनता के बीच इतनी मजबूत है। वे यह जानने के लिए भी बहुत उत्सुक थे कि इस्लाम का यह इंडोनेशियाई रूप कैसे इतना सचेत और समाजवादी हो गया है जो घोषित तौर पर कम्युनिस्ट आदर्शों के साथ अपने को जोड़ सका है। उन्हीं दिनों जेसूट जूप बिक जैसे कुख्यात कम्युनिस्ट विरोधी ईसाई विचारकों और षडयंत्राकारियों ने इंडोनेशिया की राजनीति में घुसपैठ की। इन लोगों ने अपना एक गुप्त संगठन बनाया और वैचारिक से लेकर अर्द्धसैनिक दस्ते तैयार किए जो पश्चिमी देशों को इंडोनेशियाई सरकार का तख्ता पलटने में मदद पहुंचा सकें। इसके नतीजे के तौर पर 1965 में सरकार का तख्ता पलटने की जो कार्रवाई हुई उसमें तकरीबन 30 लाख लोग मारे गए और बेघरबार हुए। पश्चिमी देशों की प्रयोगशाला में तैयार इस कम्युनिस्ट विरोधी और बौद्धिकता विरोधी प्रचार का संचालन करने वाले जूप बिक तथा इसके साथियों ने अनेक मुस्लिम संगठनों को कट्टरता की ओर प्रेरित किया और उनकी मदद से सत्ता पलट के तुरंत बाद बड़े पैमाने पर राजधानी जकार्ता सहित देश के विभिन्न हिस्सों में वामपंथियों का कत्लेआम किया। वे यह नहीं समझ सके कि इंडोनेशिया में कार्यरत पश्चिमी देशों के ये कट्टर ईसाई समूह न केवल कम्युनिज्म का बल्कि इस्लाम का भी सफाया कर रहे थे और वे उदारवादी तथा वामपंथी विचारधारा की ओर झुकाव रखने वाले इस्लाम को भी अपना निशाना बना रहे थे।
 1965 के इस सैनिक विद्रोह के बाद पश्चिमी देशों की मदद से सत्ता में आए फासिस्ट तानाशाह जनरल सुहार्तों ने जूप बिक को अपना प्रमुख सलाहकार नियुक्त किया। सुहार्तों ने बिक के एक शिष्य लिम बायन की पर पूरा भरोसा किया और उसे एक प्रमुख ईसाई व्यवसायी के रूप में अपने देश में स्थापित होने में मदद पहुंचायी।
 इंडोनेशिया में मुसलमानों की सबसे ज्यादा आबादी है। सुहार्तों की तानाशाही के दौरान मुलसमानों को हाशिए पर डाल दिया गया, ‘अविश्वसनीय’ राजनीतिक पार्टियों पर प्रतिबंध् लगा दिया गया और देश की समूची राजनीति तथा अर्थव्यवस्था पर पश्चिमीपरस्त अल्पसंख्यक ईसाइयों का प्रभुत्व स्थापित हो गया जो आज तक बना हुआ है। यह अल्पसंख्यक समूह बहुत जटिल है और इसने कम्युनिस्ट विरोधी योद्धाओं का एक जाल तैयार कर रखा है जिसमें बड़े-बड़े औद्योगिक समूह, माफिया, मीडिया समूह और निजी धर्मिक स्कूलों सहित शिक्षण संस्थाएं भी शामिल हैं। इनके साथ धर्मिक उपदेशकों का एक भ्रष्ट गिरोह भी काम करता है।
इन सबका असर यह हुआ कि इंडोनेशिया में जिस तरह का इस्लाम था वह एक खामोश बहुमत के रूप में पस्त होकर पड़ा रहा और उसका सारा असर खत्म हो गया। अब इनकी खबरें तभी सुर्खियां बनती हैं जब इनके बीच से हताश लड़ाकुओं का कोई समूह मुजाहिदीन बनकर किसी होटल या नाइट क्लब में अथवा बाली और जकार्ता के किसी रेस्टोरेंट में धमाका करता है। क्या वे आज भी सचमुच ऐसा कर रहे है? इंडोनेशिया के पूर्व राष्ट्रपति और प्रगतिशील मुस्लिम धर्म गुरु अब्दुरर्हमान वाहिद ने, जिन्हें जबरन वहां के एलीट वर्ग द्वारा सत्ता से हटा दिया गया, एक बार मुझे बताया कि ‘मुझे पता है कि जकार्ता के मेरिएट होटल में किसने बम धमाका किया। यह धमाका इस्लामपरस्तों ने नहीं किया था। यह धमाका इंडोनेशिया की खुफिया एजेंसियों ने किया था ताकि वे पश्चिमी देशों को खुश कर सकें और अपनी मौजूदगी तथा मिल रहे पैसों को तर्कसंगत ठहरा सकें।’
विख्यात मुस्लिम बुद्धिजीवी और मेरे मित्र जियाउद्दीन सरदार ने लंदन में मुझसे कहा कि ‘मेरा यह मानना है कि पश्चिमी साम्राज्यवादी देशों ने इन गुटों के साथ गठबंधन ही नहीं किया बल्कि इन्हें पैदा भी किया। हमें यह समझने की जरूरत है कि उपनिवेशवाद ने मुस्लिम राष्ट्रों और इस्लामिक संस्कृतियों को महज नष्ट ही नहीं किया बल्कि इसने ज्ञान और मेध को, विचार और रचनात्मकता को मुस्लिम संस्कृति से क्रमशः समाप्त करने का काम किया। उपनिवेशवादी कुचक्र की शुरुआत इस्लाम के ज्ञान को अपने ढंग से इस्तेमाल करने के साथ हुई जिसे ‘यूरोपियन पुनर्जागरण’ और ‘प्रबोध्न’ का आधर बनाया गया और इसकी समाप्ति मुस्लिम समाजों और इतिहास से भी इस ज्ञान तथा विद्वता का पूरी तरह सपफाया करने के साथ हुआ। इस काम के लिए इसने ज्ञान से संबंध्ति संस्थानों को नष्ट कर, देशज ज्ञान के विभिन्न रूपों को प्रतिबंध्ति कर तथा स्थानीय विचारकों और विद्वानों की हत्या करके संपन्न किया। इसके साथ ही इसने इतिहास का पुनर्लेखन इस तरह किया जैसे यह पश्चिमी सभ्यता का इतिहास हो जिसमें अन्य सभ्यताओं के सभी छोटे-मोटे इतिहासों को समाहित कर लिया गया।’
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद के वर्षों में जो उम्मीदें पैदा हुई थीं उस समय से लेकर मौजूदा दौर के अवसाद भरे दिनों को देखें तो एक बहुत लंबी और दर्दनाक यात्रा पूरी करनी पड़ी है। मुस्लिम जगत आज आहत, प्रताडि़त और विभ्रम की स्थिति में है जिसने उसे लगभग रक्षात्मक हालत में पहुंचा दिया है। बाहरी लोगों द्वारा इसे गलत समझा जा रहा है और प्रायः खुद उनके उन लोगों द्वारा भी जो पश्चिमी और ईसाई विश्व दृष्टि पर भरोसा करने के लिए प्रायः मजबूर होते हैं।
किसी जमाने में सहिष्णुता, ज्ञान, लोगों की खुशहाली के सरोकार जैसे गुणों की वजह से इस्लामिक संस्कृति के अंदर जो आकर्षण था उसे इन पश्चिमी देशों ने पूरी तरह समाप्त कर दिया। बस केवल एक चीज बची रह गयी जिसे हम धर्म कहते हैं। आज अधिकांश मुस्लिम देशों में या तो तानाशाहों का शासन है या सैनिक शासन अथवा किसी भ्रष्ट गिरोह का शासन है। ये सभी पश्चिमी देशों और उनके हितों के साथ घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए हैं। इन पश्चिमी हमलावरों और उपनिवेशवादियों ने जिस तरह दक्षिणी और मध्य अमेरिका तथा अफ्रीका के भी साम्राज्यों और महान राष्ट्रों के साथ किया उसी तरह इन्होंने महान मुस्लिम संस्कृति को भी समाप्त कर दिया। इस संस्कृति की जगह पर इन्होंने लालच, भ्रष्टाचार और बबर्रता को जन्म दे दिया। ऐसा लगता है कि हर वह चीज जो गैर ईसाई बुनियाद से भिन्न हो उसे साम्राज्यवादी देश धूल में मिला देना चाहते हैं। ऐसी हालत में वही संस्कृतियां आज भी किसी तरह अपने को जिंदा रख सकी हैं जो सबसे बड़ी थीं या बहुत कठोर थीं।
हम आज भी देख रहे हैं कि अगर कोई मुस्लिम देश अपनी बुनियादी अच्छाई की ओर लौटना चाहता है या अपने समाजवादी अथवा समाजवाद की ओर उन्मुख रास्ते पर बढ़ना चाहता है तो इसे बुरी तरह सताया जाता है और अंत में नष्ट ही कर दिया जाता है। यह हमने अतीत में ईरान, मिस्र, इंडोनेशिया आदि में और हाल के दिनों में इराक, लीबिया या सीरिया में देखा है। यहां जनता की आकांक्षाओं को बड़ी बेरहमी के साथ कुचल दिया गया और जनतांत्रिक तरीके से चुनी गयी इनकी सरकारों का तख्ता पलट दिया गया।
अनेक दशकों से हम देख रहे हैं कि फिलिस्तीन को इसकी आजादी से और साथ ही बुनियादी मानव अध्किारों की इसकी ललक से वंचित कर दिया गया है। इजरायल और साम्राज्यवादी देश दोनों ने मिलकर इसके आत्मनिर्णय के अधिकार को धूल में मिला दिया है। फिलिस्तीनी जनता को एक गंदी बस्ती में कैद कर दिया गया है और इसे लगातार अपमान झेलना पड़ता है। इसे लगातार हत्याओं का सामना करना पड़ता है। मिस्र से लेकर बहरीन तक ‘अरब बसंत’ की जो धूम मची हुई थी उसे लगभग हर जगह पटरी से उतार दिया गया और फिर पुरानी सत्ताएं और सैनिक सरकारें बदस्तूर वापस सत्तारूढ़ हो गयीं। अफ्रीकी जनता की ही तरह मुसलमान भी इस बात की कीमत अदा कर रहे हैं कि वे क्यों ऐसे देश में पैदा हुए जो प्राकृतिक संसाध्नों के मामले में अत्यंत समृद्ध है। उन्हें इस बात के लिए भी प्रताडि़त किया जा रहा है कि वे चीन के साथ क्यों संबंध बना रहे हैं जबकि चीन उन देशों में से है जिसका इतिहास महानतम सभ्यता का इतिहास है और जिसने पश्चिमी देशों की संस्कृतियों को अपनी चमक के आगे धुंधला कर दिया है।
ईसाइयत ने सारी दुनिया में लूट मचाई और बर्बरता का परिचय दिया। इस्लाम ने अपने सलादीन जैसे महान सुल्तानों के साथ हमलावरों का मुकाबला किया और अलेप्पो तथा दमिश्क, काहिरा और येरुसलम जैसे महान शहरों की हमलावरों से हिपफाजत की। यह युद्ध और लूट-खसोट की बजाय महान सभ्यता के निर्माण की कोशिश में ज्यादा लगा हुआ था। आज पश्चिमी देशों में शायद ही किसी को पता हो कि सलादीन कौन था या उसने मुस्लिम जगत में कितने महान वैज्ञानिक, कलात्मक या सामाजिक उपलब्ध्यिां हासिल कीं। लेकिन हर व्यक्ति को आईएसआईएस के कुकृत्यों की अच्छी जानकारी है। बेशक लोग आईएसआईएस को एक उग्र इस्लामिक समूह के रूप में जानते हैं-उन्हें यह नहीं पता है कि मध्यपूर्व की देशों में अस्थिरता पैदा करने के लिए पश्चिमी देशों ने इसे अपने प्रमुख उपकरण के रूप में ईजाद किया है।
फ्रांस की पत्रिका शार्ली हेब्दो के पत्रकारों की मौत पर (जो निश्चय ही जघन्यतम अपराध है) समूचा फ्रांस आज शोक में डूबा हुआ है और एक बार फिर इस्लाम को एक बर्बर और जुझारू धर्म के रूप में चित्रित किया जा रहा है लेकिन इस पर चर्चा नहीं हो रही है कि किस तरह ईसाइयत के कट्टरपंथी सिद्धांतों ने मुस्लिम जगत की धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील सरकारों का तख्ता पलटा, उनका गला घोंट दिया गया और समूची मुस्लिम आबादी को इन पागलों के हवाले कर दिया गया।
पिछले पांच दशकों के दौरान तकरीबन एक करोड़ मुसलमान महज इसलिए मार डाले गए क्योंकि उन्होंने साम्राज्यवाद के स्वार्थों की पूर्ति नहीं की या वे उनकी मनमर्जी से काम करने के लिए तैयार नहीं हुए। इंडोनेशिया, इराक, अल्जीरिया, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, ईरान, यमन, सीरिया, लेबनान, मिस्र, माली, सोमालिया, बहरीन तथा ऐसे अन्य कई देशों के मुसलमानों की हालत देखने से इसी बात की पुष्टि होती है कि साम्राज्यवादियों के बताए रास्ते पर न चलने का खामियाजा उन्हें किस तरह भुगतना पड़ा। इन पश्चिमी देशों ने इन इस्लामिक देशों में अरबों डॉलर खर्च किए, उन्हें हथियारबंद किया, उन्हें उन्नत सैनिक प्रशिक्षण दिया और फिर खुला छोड़ दिया। सऊदी अरब और कतर जैसे देशों में जहां आतंकवाद को पूरी शिद्दत के साथ पाल-पोस कर बड़ा किया जा रहा है ये दोनों देश आज पश्चिमी देशों के सबसे चहेते देशों में से हैं और इन्होंने जिस तरह आतंक का अन्य मुस्लिम देशों में निर्यात किया है उसके लिए इन्हें कभी सजा नहीं दी गयी। हिजबुल्ला जैसा महान सामाजिक मुस्लिम आंदोलन जो आज आईएसआईएस का मुकाबला करने के लिए पूरी ताकत के साथ डटा हुआ है और जो इस्राइली हमलावरों के साथ लेबनान के साथ खड़ा है, उसे इन पश्चिमी देशों ने आतंकवादियों की सूची’ में डाल रखा है। अगर इस तथ्य पर कोई ध्यान दे तो बहुत सारी बातें खुद ही स्पष्ट हो जाती हैं। मध्य-पूर्व के परिदृश्य को देखें तो साफ पता चलता है कि पश्चिमी देश इस बात के लिए आमादा हैं कि कैसे मुस्लिम देशों और मुस्लिम संस्कृति का सपफाया कर दिया जाय। जहां तक मुस्लिम धर्म का सवाल है साम्राज्यवादी देशों को धर्म का वही स्वरूप स्वीकार्य है जिसमें पूंजीवाद के अत्यंत चरम रूप और पश्चिम के प्रभुत्वकारी हैसियत को स्वीकृति मिलती हो। इस्लाम का जो दूसरा रूप वे स्वीकार करते हैं उसमें पश्चिम तथा खाड़ी देशों के उनके सहयोगियों द्वारा निर्मित इस्लाम का माॅडल होना चाहिए जिसका मकसद ही प्रगतिशीलता और सामाजिक न्याय के खिलाफ खड़ा होना हो।
Vltchek इस्लामी आतंकवाद का दोषी कौन? भाग-2

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आंद्रे वेतचेक की पुस्तक ‘फाइटिंग अगेन्स्ट वेस्टर्न इंपरलिज्म’ काफी चर्चित रही है। उन्होंने अपने जीवन के काफी वर्ष लातिन अमेरिका में बिताये हैं और फिलहाल पूर्वी एशिया और अफ्रीका पर काम कर रहे हैं।
साभार : http://www.hastakshep.com/intervention-hastakshep/issue/2015/03/08/%E0%A4%87%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%B2%E0%A4%BE%E0%A4%AE%E0%A5%80-%E0%A4%86%E0%A4%A4%E0%A4%82%E0%A4%95%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%A6-%E0%A4%95%E0%A4%BE-%E0%A4%A6%E0%A5%8B%E0%A4%B7%E0%A5%80-%E0%A4%95

 

ओम थानवी क्यों संघ परिवार के बाप “आप” का प्रवक्ता नजर आ रहे हैं

ओम थानवी क्यों संघ परिवार के बाप “आप” का प्रवक्ता नजर आ रहे हैं

केसरिया रंग की होली अब खूब खेली जाएगी और इस रंगतर्पण में खून की नदियों में सुलगती आग के तमाम ज्वालामुखी दफन हो जाएंगे।

आम आदमी पार्टी को हमारे संपादक ओम थानवी और हमारे अत्यंत प्रिय कामरेड अभय कुमार दुबे आंतरिक लोकतंत्र का अनूठा प्रयोग बताते हुए योगेंद्र यादव के स्थानापन्न पार्टी प्रवक्ता नजर आ रहे हैं।
इसी बीच नैनीताल से हमारे मित्र उमेश तिवारी के फेसबुक पोस्ट से पता चला कि आप के  मीडिया मुख आशुतोष हमारे दिनेशपुर में किसी रिसाले का विमोचन कर आये हैं।
इसी बीच प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव को ‘आप’ की पॉलिटिकल अफेयर्स कमिटी (पीएसी) से निकाले जाने के बाद भी पार्टी में घमासान जारी है। राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य और महाराष्ट्र से पार्टी के बड़े नेताओं ने बागी रुख अख्तियार करते हुए सीधे-सीधे अरविंद केजरीवाल पर उंगली उठाई है। उन्होंने कहा कि अरविंद केजरीवाल ने साफ-साफ कह दिया था योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण पीएसी में रहते हैं, तो मैं काम नहीं कर पाऊंगा। मयंक गांधी ने ब्लॉग लिखकर यह भी कहा कि वह जानते हैं कि इस खुलासे से उन्हें भी इसके नतीजे भुगतने पड़ सकते हैं, लेकिन वह इसके लिए तैयार हैं।
ओम थानवी की संपादकीय भूमिका से नाराज होने का सवाल अभी पैदा हुआ नहीं है और जनसत्ता अभी केसरिया कारपोरेट सुनामी के खिलाफ मोर्चाबंद है। लेकिन समझ में नहीं आ रहा है कि हमारे संपादक क्यों आम आदमी पार्टी का प्रवक्ता नजर आ रहे हैं।यह हमारे लिए खुश होने का मौका नहीं है।
विडंबना है कि आम आदमी के आंतरिक लोकतंत्र का बचाव करते हुए वामदलों के आंतरिक लोकतंत्र का हवाला देते नजर आये अभय कुमार दुबे जी।
क्रांति का आत्मसंघर्ष जैसे अध्ययन के प्रणेता की ओर से आम आदमी पार्टी पर यह वाम ठप्पा भी अजब गजब है।
ये दो लोग हैं, जिन्हें मैं मीडिया कुल में दूसरों से पृथक मानकर चल रहा था। हमारे आदरणीय मित्र पी साईनाथ का हिंदू से अलगाव से निर्णायक तौर पर साबित हो गया कि भारतीय मीडिया और खासतौर पर अंग्रेजी मीडिया में हम तो कोई घास फूस नहीं हैं, लेकिन यहां पी साईनाथ जैसे ग्रामीण भारत और कृषि भारत के प्रतिनिधित्व की जरूरत है नहीं।
विडंबना यह है कि कारपोरेट प्रायोजित मंच से साईनाथ अब वैकल्पिक मीडिया की बात कर रहे हैं और उनके साथ जुड़े हैं हमारे मित्र जयदीप हार्डीकर भी ,जो अब भी दि टेलीग्राफ में बने हुए हैं। हम लोग चाहकर भी उनकी पांत में शामिल हो नहीं सकते।
खास बात यह है कि बिजली पानी भ्रष्टाचार और अन्ना ब्रिगेड के सत्याग्रह और राजनीति दल में आंतरिक लोकतंत्र को छोड़कर देश के दूसरे अहम मुद्दों को स्पर्श भी नहीं कर रहा है वैकल्पिक राजनीति का यह अनूठा प्रयोग और हमारे हिसाब से दूबे जी को इसका अवश्य ही नोट लेना चाहिए।
थानवी जी को यह देखना चाहिए  कि जिस आम आदमी पार्टी का वे बचाव कर रहे हैं, वह आर्थिक मुद्दों पर और हिंदू साम्राज्यवादी कारपोरेट केसरिया राज पर खामोश है।
हम अब भी हमारे मित्रों की असहमति के बावजूद मानते हैं कि ओम थानवी प्रभाष जोशी से बेहतर संपादक हैं।
हम यह भी नहीं मानते कि आप के कोटे से थानवी जी या दुबे जी राज्यसभा के टिकट के जुगाड़ में बढ़ चढ़कर महिमामंडन कर रहे हैं संघ परिवार के बाप आप का। उनका यह मोह जितनी जल्दी भंग हो,उतना ही अच्छा है क्योंकि हम जनमोर्चे पर दूबे जी और थानवी जैसे लोगों की प्रासंगिकता बनाये रखने के हक में हैं।
यह कहने के लिए मुझे इसका डर नहीं है कि मैं जनसत्ता में ही एक अदना सा पत्रकार हूं जो अपने संपादक की आलोचना कर रहा है।
जनसत्ता में अब भी वह आंतरिक लोकतंत्र हैं और विडंबना यह है कि थानवी जी इसे आम आदमी जैसे हवाहवाई विकल्प के साथ चस्पां करने पर तुले हुए हैं और उन्हें आप प्रवक्ता के रुप में देखकर हमें दुःख हो रहा है।
सबसे दुखद बात तो यह है कि आर्थिक प्रगति और मेकिंग इन के नाम जो दिनदहाड़े रोज रोज डकैतियां हो रही हैं, जो रोज-रोज देश नीलामी पर चढ़ रहा है, उस पर मीडिया का पक्ष समझने में कोई दिक्कत नहीं है, कारपोरेट फडिंग और कारपोरेट लाबिइंग से चल रही मुख्यधारा की राजनीति की कथनी करनी अलग-अलग और संसदीय सहमति के फंडे को समझने में भी कोई खास दिक्कत नहीं होनी चाहिए। सिर्फ जनपक्ष का फंडा पहेली है।
नंगा सच यह है कि सबसे खतरनाक तो इस केसरिया कारपोरेट तिसिस्म के विकल्प बतौर बनाये जा रहे अनूठे राजनीतिक तिलिस्म का फंडा है, जिसका आम आदमी सिर्फ कारपोरेट राजधानी दिल्ली का नागरिक है और जिसे सस्ती बिजली और मुफ्त पानी चाहिए, जिसके पेट में न भूख है और न जिसके हाथ खाली है, जो न आफसा के गुलाम हैं और न सलवा जुड़ुम के तहज वधस्थल पर वह खड़ा है और न वह जलजंगल जमीन आजीविका मानवाधिकार नागरिक अधिकार प्रकृति और पर्यावरण से बेदखल है और उसके कंधे फर इस मुकम्मल शेयर बाजार की अनुत्पादक अर्थव्यवस्था का कोई बोझ नहीं है।
पलाश विश्वास
साभार : http://www.hastakshep.com/%E0%A4%AE%E0%A5%80%E0%A4%A1%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%BE/%E0%A4%9A%E0%A5%8C%E0%A4%A5%E0%A4%BE-%E0%A4%96%E0%A4%AE%E0%A5%8D%E0%A4%AD%E0%A4%BE/2015/03/05/%E0%A4%93%E0%A4%AE-%E0%A4%A5%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A4%B5%E0%A5%80-%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A5%8B%E0%A4%82-%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%98-%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B0

 

इंडियाज़ डॉटर – सेक्स, वॉइलेंस और वुमेन : बाज़ार का सबसे ज्यादा बिकाऊ माल

‘ इंडियाज़ डॉटर ’  एक ऎसी डॉक्युमेंट्री फिल्म है जो पूरी घटना को कुछ इस तरह बयान करती है कि देखने वाले को यह भरोसा होने लगे कि गरीबी में ही अपराध की जड़ें घनी और गहरी जमी हुई हैं, जबकि वास्तव में पूरी फिल्म सेक्स अपराध और औरत को केंद्र में रखकर मजबूती से बांधे रखती है।  
‘ इंडियाज़ डॉटर ’ एक ऎसी डॉक्युमेंट्री फिल्म है जो उन बदलावों की तस्वीर पेश करती है, जिसने अपराध को एक बेहतर उत्पाद बनाने के लिए प्रेरित किया। ये बदलाव किस तरह हुए हैं। इन्हें समझे बिना जमीनी हकीकत को समझना नामुमकिन है। भारत जैसे विकासशील मुल्क में जहां हर 20 मिनट में बलात्कार की घटनाएं सामने आ रही हैं, यह जितना आपराधिक है उतना ही चिंताजनक भी है।
दरअसल 16 दिसम्बर 2012 में हुई बर्बरतापूर्वक हिंसा, बलात्कार और मौत की घटना ने जहाँ देश भर में आक्रोश का लावा भर दिया, वहीं सडक से संसद तक इन्साफ के लिए आक्रामक आवाजें गूँज उठीं। ‘हत्यारों को फांसी दो’ जैसे नारों के बीच घमासान जद्दोजहद ने कई दिनों तक युवाओं को जुर्म से लड़ने की ऊर्जा दी। लोगों का हुजूम प्रशासनिक अमले पर हर तरह से भारी पड़ा। जिस तरह दिल्ली और अनेक शहरों में लोग सड़कों पर झंडे, बैनर, पोस्टर, नारों और गुनहगार के खिलाफ जोर आज़माइश करते हुए उतरे। उसे देखकर लगा कि अब यह सिलसिला तभी थम सकता है जब कानूनी कार्रवाई फौरन हो और जनाक्रोश के पक्ष में हो। आनन-फानन में ही सही मगर हुआ भी कुछ ऐसा ही।
जनाक्रोश को प्रभावी तरीके से पेश करती मीडिया की तस्वीरें गवाह और ऐतिहासिक लड़ाई के लिए एक जरूरी दस्तावेज बनीं। बेहद संवेदनशील मुद्दे पर गुस्से से भरे लोगों को समझाना कतई आसान न था। जुर्म के खिलाफ संघर्ष देखने लायक था। लगा जैसे किसी बड़े राजनीतिक-सामजिक बदलाव के लिए एकाएक जमीन तैयार हो चुकी है। जनाधार इतना प्रभावशाली और शक्ति-प्रदर्शन इतना पुरज़ोर था कि मानो किसी ने थमे हुए बर्षों पुराने जज्बे की दबी आंच को हवा दी हो। ऐसा लगने लगा कि यह धधकता लावा पिछड़े समाज को धकेलकर आगे निकल जाने को आतुर हो उठा है।
एक युवा लड़की के साथ बलात्कार और उसके बाद बर्बर हिंसा से हुई मौत ने हर खासोआम के दिल दहला दिए थे। सड़कों में लबालब भरा जन शैलाब किसी बड़े विस्फोट की तरह देश के हर हिस्से में जलजले सा फूटा था। फिर इस आक्रोश का नतीजा यह हुआ कि इस संजीदा मामले में 17 दिनों के भीतर ही एफ़ाईआर दर्ज हुई और जघन्य अपराध करने वालों की गिरफ्तारी हुई। फास्ट ट्रैक कोर्ट में सुनवाई चली और एक ऐतिहासिक फैसला लिया गया। जिससे बलात्कार करने वाला हर गुनहगार घबरा जाय। कानून में फेरबदल हुए। महिलाओं के शोषण और अत्याचार के खिलाफ अपराध को लेकर जरूरी संशोधन कानून में किये गये।
इस पूरे मामले पर एक बड़ी विचित्र और रोचक बात तब सामने आई, जब बीबीसी ने सरकार से अपराधी मुकेश सिंह का इंटरव्यू लेने की इजाजत मांगी। और डॉक्यूमेंट्री फिल्म बनाने के लिए मंत्रालय ने इजाजत दी। इस डाक्यूमेंट्री फिल्म का मकसद केवल नैतिक और सामाजिक शिक्षा देना तो हरगिज़ नहीं रहा। मामला इससे भी कहीं अधिक गहरा और खलबली पैदा कर रहा था। सवाल यह था कि इस फिल्म को हर कोई किस नजर से देखे।
फिल्म मेकिंग पूरी होने में दो साल का वक्त लगा। यह डाक्यूमेंट्री फिल्म एक लडकी के साथ बर्बर तरीके से बलात्कार और हत्या की घटना को लिए  एक तयशुदा मुकाम की ओर बढ़ चली। इसमें एक बेहद दिलचस्प मोड़ तब आया जब इसके रिलीज़ होने की बात उठी। यहीं से यह फिल्म एक अनसुलझी बहस में बदल गई। एक बौद्धिक विमर्श शुरू हुआ। चाय की दुकानों से लेकर संसद तक जोर पकड़ने वाला यह मामला कहाँ खत्म हो। इस तरह के सवाल खड़े थे। इसका मुख्य प्रयोजन कौन बताये?
पूरी फिल्म रिलीज होने की घोषणा और रिलीज के बाद से ही दर्दनाक अपराध की यह कहानी एक नये दौर के बदलाव भी साथ लिए पारंपरिक सोच से लडती दिखी। नये प्रस्थान बिंदु भी गाहे-ब-गाहे दिखाई दिए। नये समय के जनाक्रोश का रेखांकन भी हुआ… नई दिशा तय की। महिलाओं पर हो रहे अत्याचारों के खिलाफ व्यवस्था में जरूरी बदलाव करने की जगह बनती दिख रही थी। कानून में बदलाव के साथ कुछ सार्थक होने की तरफ एक संकेत साफ था। और एक ख़ास हिदायत के साथ गहरी सुगबुगाहट, खलबली पैदा होने के खतरे भी थे।
इस डाक्यूमेंट्री फिल्म ने पूरी कहानी में संवेदना और संचेतना के बीच संतुलन बिलकुल भी नहीं खोया। यह फिल्म अमूमन हर इंसान की नस-नस में किसी तीखी चुभन के साथ एक रवानगी भरने को काफी थी। हर वक्त एक ख्याल दिलो-दिमाग में भभकते सन्देश के साथ मौजूद था। फिल्म के तकनीक और गुणवत्ता पक्ष में कहीं कोई कमी नहीं दिखाई दे रही थी। बहुत ही सुलझे हुए तरीके से एक-एक चित्र जिन्हें उभारा गया था, बेहद तजुर्बे के साथ परोसा गया था। उसमें हर टुकड़ा एक सामाजिक ढाँचे और आज़ाद ख्याल की तरह शामिल था। मिलीजुली प्रतिक्रिया से कहीं ज्यादा और कहीं बेहतर तरीके से प्रस्तुत फिल्म घटना को अंतिम हिस्से तक ले जाते हुए गहरी टीस छोड़ जाती है। इसमें एक ओर संदेह पैदा होने की गुंजाइश भी लगातार बनी रहती है। वहीं दूसरी तरफ किसी अनचाहे विशवास की पकड़ कतई ढीली नहीं होने पाती।
इस डाक्यूमेंट्री पर भारत सरकार ने जिन व्यावसायिक शर्तों के साथ बनाने की इजाजत दी थी। फिल्मनिर्माता ने उसे फिल्म पूरी होने पर मानने से इनकार कर दिया। और जनता के सामने इसे यू-ट्यूब पर चुनौतीपूर्ण तरीके से प्रसारित किया। यहाँ से यह मामला अब एक नये फलसफे की ओर बढ़ा। जहाँ बहस और तर्क के हज़ारों रास्ते खुले थे। सरकार, जनता और फिल्ममेकर इन तीनों के बीच एक तनावपूर्ण सम्बन्ध, सम्वेदनशील बहस और तार्किक संवाद यहीं से शुरू हुआ। यहाँ यह समझना जरूरी है कि आखिर हम किधर खड़े हों, जिससे सब कुछ साफ़ तौर से देखा परखा जा सके? मामला क्या सिर्फ फिल्म के पक्ष में या विपक्ष में होने तक ही सीमित है। अगर ऐसा होता तो फिर किसी और तरह की बहस के लिए गुंजाइश ही न रहती। मगर बात अब इससे कहीं आगे, बहुत दूर जा निकली है। इन्हीं मुद्दों पर आधारित है एक नजरिया। उम्मीद है तमाम बातों को जानने के बाद सारी बहसें एक निश्चित केंद्र तक लाई जा सकेंगी और पूरे मामले को किस तरह देखा जाय? यह भी तय हो जाएगा।
जहां वास्तविक घटना राजधानी दिल्ली में एक युवा लड़की की बर्बरता पूरक किये गये हमले और मौत से जुडी है वहीं फिल्म में कई चेहरे और चरित्र उभरे हैं। और हर चरित्र अपनी ज़िन्दगी के कुछ ख़ास पहलुओं को लेकर पूरी तैयारी के साथ रोचक अंदाज़ में उपस्थित है। पूरी फिल्म में गुनहगार का चरित्र बेहद महत्वपूर्ण है वह अपने मनोवैज्ञानिक संरचना के साथ आया है। उसने जो जिन्दगी जी है उसके कई कोण हैं। जबकि वास्तविक घटना में बेपनाह दर्द से मौत का सफर तय करने वाली लड़की महत्वपूर्ण है। गुनहगार फिल्म में किसी नायक की तरह जेल से अपनी आपबीती कहता है। वह वास्तविक घटना का एक बिलकुल भिन्न पहलू पर सोचने लिए मानो दबाव बनाता है। कहें कि बड़ी सहजता से भावशून्य बने रहने की अदाकारी करते हुए कामयाबी के साथ अपना पक्ष रखता है। मानो उसके भावशून्य अभिनय पर और घटना पर सपाटबयानी के लिए निर्माता का ख़ास जोर है। कहानी के भीतर कुछ अंश नाटकीय भी जोड़े गये हैं। जिन्हें लेकर और कई तरह के सवाल, आशंकाएं और निश्चिन्ता लगातार बनी रहती है। हर चरित्र कहीं भी फिल्म में अतिवाद और अपराध के खिलाफ किसी जंग का ऐलान करते हुए या फैसले के लिए जोर डालता नहीं दिखाई देता है। आखिर इसकी वजह होगी? इसका कोई तो कारण होगा?
दरअसल यह पूरी घटना एक ही तबके की हकीकत कुछ इस तरह बयान करती है कि देखने वाले को यह भरोसा होने लगे। गरीबी में ही अपराध की जड़ें घनी और गहरी जमी हुई हैं। जबकि वास्तव में पूरी फिल्म सेक्स अपराध और औरत को केंद्र में रखकर मजबूती से बांधे रखती है। इसकी वजह क्या है? यह जानना महत्वपूर्ण है।
एक कारण तो यह है कि दुनिया भर में इस वक्त सबसे अधिक तेजी से अगर कुछ बेचा जा सकता है तो वह हैं- सेक्स, औरत और अपराध। इन्हें हर तबके का अधिकाँश हिस्सा अपनी हैसियत के हिसाब से कम से कम और अधिक से अधिक कीमत देकर उपभोग करने की इच्छा रखता है। बाज़ार ने सेक्स, वाइलेंस और औरत को ऐसे उत्पाद के बतौर उतारा है कि इसे हर तबका अपनी हैसियत के मुताबिक़ कीमत अदा करके आनंदित हो सके।
ऐसे सामान को बेचने लायक ज्यादातर कारखाने झुग्गी-झोपड़ियों से लेकर पंचसितारा होटलों और रिहायशी चकाचौंध से भरी मंडियों की शक्ल में अमूमन हर शहर में मौजूद हैं। इन कारखानों से निकला तैयार माल जब बाज़ार की रौनक बनता है तब लोग इन्हें हासिल करने की इच्छा से भरे उपभोग का सुख पाने की चाहत रखते हैं। इंसान में इन्द्रिय-सुख की इच्छाएं इतनी बलवती होती हैं कि बड़े से बड़े जोखिम के बावजूद इसे पाना एक मकसद बनकर दिलोदिमाग पर हावी रहता है। इन उत्पादों या सामानों को अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार बेपनाह मुनाफे के साथ कैसे इस्तेमाल करता है? यह देखना दिलचस्प है।
बाज़ार इन्हें बेहद आसानी से एक निर्धारित कीमत पर मुहैया कराने की ऎसी तरकीबें निकालता हैं जिसमें सामानों को बेचने और बनाने वाले कारोबारी गुनहगार होकर भी बा-हैशियत अपना रूतबा बनाये रखते हैं। वास्तव में इन मंडियों की तादाद बढना तब शुरू हुई जब तीसरे दर्जे के मुल्कों ने दुनिया के मजबूत आर्थिक आधार वाले मुल्को से उदाररीकरण के तहत समझौते किये। और बड़ी वैश्विक मंडियों के लिए जगह तलाशी।
ये मंडियां कैसे एक पारंपरिक मूल्यों वाले मुल्क में चारो तरफ खुलती गई? क्या बाज़ार इन उत्पादों की खरीद फरोख्त करने के लिए सरकार से किसी भी तरह अनुबंधित है? क्या कोई कानून इन उत्पादों की खरीद पर रोक लगाने में कारगर साबित हुआ है? वो कौन लोग हैं जिन्हें इन सामानों से बेशुमार मुनाफ़ा हो रहा है? ये किस तरह का बाज़ार है जो परम्परावादी और आधुनिक तंत्र के किसी भी व्यापारिक अनुबंध से बिलकुल भिन्न जमीन पर फल-फूल रहा है। ऐसे अनगिनत सवालों से भी निबटना होगा।
….. जारी
-डॉ. अनिल पुष्कर
IMG0125Aqqqq-7c-7c-62-62-62 इंडियाज़ डॉटर - सेक्स, वॉइलेंस और वुमेन : बाज़ार का सबसे ज्यादा बिकाऊ माल

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अनिल पुष्कर कवीन्द्र, प्रधान संपादक अरगला (इक्कीसवीं सदी की जनसंवेदना एवं हिन्दी साहित्य की त्रैमासिक पत्रिका)
साभार : http://www.hastakshep.com/hindi-news/film-tv/2015/03/08/%E0%A4%87%E0%A4%82%E0%A4%A1%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A5%9B-%E0%A4%A1%E0%A5%89%E0%A4%9F%E0%A4%B0-%E0%A4%B8%E0%A5%87%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B8-%E0%A4%B5%E0%A5%89%E0%A4%87%E0%A4%B2%E0%A5%87?utm_source=feedburner&utm_medium=feed&utm_campaign=Feed%3A+Hastakshepcom+%28Hastakshep.com%29

 

Sunday, 8 February 2015

भारतीय प्रजातंत्र के समक्ष कौन-से खतरे हैं और क्या मोदी सरकार के आने के बाद से ये खतरे बढ़े हैं?

भारतीय प्रजातंत्र के समक्ष कौन-से खतरे हैं और क्या मोदी सरकार के आने के बाद से ये खतरे बढ़े हैं?

भारतीय राष्ट्रवाद पर हिन्दू राष्ट्रवाद का पहला बड़ा आक्रमण था गांधी जी की हत्या

दोराहे पर ठिठका भारतीय प्रजातंत्र-प्रजातंत्र के समक्ष कौन-से खतरे

असगर अली इंजीनियर स्मृति व्याख्यान

मैं अपने इस व्याख्यान की शुरूआत, अपने अभिन्न मित्र डाॅ. अस़गर अली इंजीनियर को श्रद्धांजलि देकर करना चाहूंगा, जिनके साथ लगभग दो दशक तक काम करने का सौभाग्य मुझे मिला। डाॅ. इंजीनियर एक बेमिसाल अध्येता-कार्यकर्ता थे। वे एक ऐसे मानवीय समाज के निर्माण के स्वप्न के प्रति पूर्णतः प्रतिबद्ध थे, जो विविधता के मूल्यों का आदर और अपने सभी नागरिकों के मानवाधिकारों की रक्षा करे।
इस संदर्भ में वे उन चंद लोगों में से थे जिन्हें सबसे पहले यह एहसास हुआ कि सांप्रदायिकता की विघटनकारी राजनीति, देश और समाज के लिए कितनी घातक है। उन्होंने सांप्रदायिक हिंसा के कारकों के अध्ययन और विष्लेषण की परंपरा शुरू की। वे हर सांप्रदायिक दंगे का अत्यंत गंभीरता और सूक्ष्मता से अध्ययन किया करते थे। बोहरा समाज, जिससे वे थे, में सुधार लाने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी। इस्लाम की शिक्षाओं की उनकी व्याख्या के लिए उन्हें दुनियाभर में जाना जाता है। अगर हम एक ऐसे समाज का निर्माण करना चाहते हैं जो शान्ति, सद्भाव, सहिष्णुता और करूणा पर आधारित हो, तो हम उनसे बहुत कुछ सीख सकते हैं।
राष्ट्र के रूप में हम आज कहां खड़े हैं? भारतीय प्रजातंत्र के समक्ष कौन-से खतरे हैं और क्या मोदी सरकार के आने के बाद से ये खतरे बढ़े हैं?
आमचुनाव में मोदी की जीत कई कारणों से हुई। उन्हें भारतीय उद्योग जगत का पूर्ण समर्थन मिला, लाखों की संख्या में आरएसएस के जुनूनी कार्यकर्ताओं ने उनके चुनाव अभियान को मजबूती दी, कार्पोरेट द्वारा नियंत्रित मीडिया ने उनका महिमामंडन किया और ‘‘गुजरात के विकास के माॅडल’’ को एक आदर्श के रूप मे प्रचारित किया। समाज को धार्मिक आधार पर धु्वीकृत किया गया और अन्ना हजारे, बाबा रामदेव व अरविंद केजरीवाल के आंदोलनों के जरिये, कांग्रेस की साख मिट्टी में मिला दी गई। इस आंदोलन का अंत, आप के गठन के साथ हुआ।
मोदी का ‘अच्छे दिन‘ लाने का वायदा हवा हो गया है। कच्चे तेल की कीमतों में भारी कमी आने के बावजूद, भारत में महंगाई बढ़ती जा रही है। लोगों के लिए अपनी जरूरतें पूरी करना मुष्किल होता जा रहा है। मोदी ने वायदा किया था कि विदेशों में जमा कालाधन, छः माह के भीतर वापस लाया जायेगा और हम सब अपने बैंक खातों में 15-15 लाख रूपये जमा देखकर चकित हो जायेंगे। यह वायदा भुला दिया गया है। जहां तक सुशासन का सवाल है, मोदी की दृष्टि में शायद उसका अर्थ अपने हाथों में सत्ता केंद्रित करना है। केबिनेट प्रणाली की जगह, देश पर एक व्यक्ति का एकाधिकारी शासन कायम हो गया है। भारत सरकार के सचिवों कोे निर्देश दिया गया है कि वे सीधे प्रधानमंत्री के संपर्क में रहें। मंत्रियों की तो मानो कोई अहमियत ही नहीं रह गई है।
स्वयंसेवी संस्थाओं के लिए आर्थिक संसाधन जुटाना कठिन होता जा रहा है। ‘ग्रीन पीस’ सरकार की इस नीति का प्रमुख शिकार बनी है। पिछली सरकार द्वारा शुरू की गई कल्याण योजनाओं को एक-एक कर बंद किया जा रहा है। वे कुबेरपति, जिन्होंने मोदी के चुनाव अभियान को प्रायोजित किया था, अपने खजाने भरने में जुटे हुए हैं। पर्यावरणीय, सामाजिक और आर्थिक मुद्दों को परे रखकर, उन्हें देश का अंधाधुंध औद्योगीकरण करने की खुली छूट दे दी गई है। नये प्रधानमंत्री को न भूतो न भविष्यति नेता के रूप में प्रचारित किया जा रहा है और उनके चारों ओर एक आभामंडल का निर्माण करने की कोशिश हो रही है।
इन सब नीतियों और कार्यक्रमों से सबसे अधिक नुकसान समाज के कमजोर वर्गों को उठाना पड़ रहा है। ‘श्रम कानूनों में सुधार’ के नाम पर श्रमिकों को जो भी थोड़ी-बहुत सुरक्षा प्राप्त थी, उससे भी उन्हें वंचित करने की तैयारी हो रही है। उद्योगपतियों के लिए भूमि अधिग्रहण करना आसान बना दिया गया है। किसानों से येन-केन-प्रकारेण उनकी जमीनें छीनी जा रही हैं। गरीबों के लिए चल रही समाज कल्याण योजनाओं व भोजन और स्वास्थ्य के अधिकार को खत्म करने की तैयारी है।
धार्मिक अल्पसंख्यकों को आतंकित करने का सिलसिला जारी है। एक केंदीय मंत्री साध्वी निरंजन ज्योति की हिम्मत इतनी बढ़ गई कि उन्होंने सभी गैर-हिंदुओं को हरामजादे बता दिया। एक अन्य भगवाधारी भाजपा नेता, नाथूराम गोडसे को ‘देशभक्त’ बता रहे हैं और हिंदू महिलाओं से ज्यादा से ज्यादा बच्चे पैदा करने की अपील कर रहे हैं। हिंदुत्ववादी, महात्मा गांधी के हत्यारे गोडसे का महिमामंडन कर रहे हैं। वे हमेशा से गोडसे के प्रशसक थे परंतु नई सरकार आने के बाद से उनकी हिम्मत बढ़ गई है। क्रिसमस पर ‘सुशासन दिवस’ मनाने की घोषणा कर इस त्योहार के महत्व को कम करने की कोशिश की गई। ऐसी मांग की जा रही है कि हिंदू धर्मगं्रथ गीता को देश की राष्ट्रीय पुस्तक घोषित किया जाये। चर्चों और मस्जिदों पर हमले हो रहे हैं। अनेक नेता बिना किसी संकोच या डर के चिल्ला-चिल्लाकर कह रहे हैं कि हम सब हिंदू हैं और भारत, एक हिंदू राष्ट्र है।
इस सबके बीच नरेन्द्र मोदी चुप्पी ओढ़े हुए हैं। शायद इसलिए क्योंकि जो कुछ हो रहा है, वह भाजपा और उसके पितृ संगठन आरएसएस के एजेन्डे का हिस्सा है। संघ का मूल लक्ष्य देश को संकीर्ण हिन्दू राष्ट्रवाद की ओर ले जाना है। हिन्दू राष्ट्रवाद, मुस्लिम अतिवाद और ईसाई कट्टरवाद से मिलती-जुलती अवधारणा है। इस संदर्भ में यह याद रखना समीचीन होगा कि भारत में ‘धार्मिक राष्ट्रवाद’ की धाराओं का जन्म, भारतीय राष्ट्रवाद के उदय की प्रतिक्रिया के रूप में हुआ। सन् 1888 में सामंतों और राजाओं-नवाबों ने मिलकर युनाईटेड इंडिया पेट्रियाटिक एसोसिएशन का गठन किया। बाद में मध्यम वर्ग और उच्च जातियों का श्रेष्ठि तबका भी इस संगठन से जुड़ गया। इसी संगठन के गर्भ से उत्पन्न हुए मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा, जो अपने-अपने धर्म का झंडा उठाए हुए थे।
हिन्दू महासभा के सावरकर ने सबसे पहले हिन्दू राष्ट्र की परिकल्पना प्रस्तुत की और सन् 1925 में गठित आरएसएस ने इसे अपना लक्ष्य बना लिया। उसने लोगों के दिमागों में यह जहर भरना शुरू किया कि भारत एक हिन्दू राष्ट्र है और यहां रहने वाले ईसाई और मुसलमान विदेशी हैं। यह विचार महात्मा गांधी, भगतसिंह व डाॅ. अम्बेडकर की समावेशी राष्ट्रवाद की अवधारणा के धुर विपरीत था।
हमें यह याद रखना चाहिए कि साम्प्रदायिक संगठनों ने स्वाधीनता संग्राम से सुरक्षित दूरी बनाए रखी और जब देश अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त होने के लिए संघर्षरत था तब ये संगठन देश में घृणा फैलाकर दंगे करवाने में जुटे हुए थे। साम्प्रदायिक हिंसा की आग शनैः-शनैः तेज होती गई और इसके कारण राष्ट्र के रूप में हमें भारी नुकसान झेलना पड़ा। साम्प्रदायिकता के दानव ने ही देश का विभाजन करवाया और नई सीमा के दोनों ओर के करोड़ों लोगों को घोर पीड़ा और संत्रास के दौर से गुजरना पड़ा।
हमें यह भी याद रखना चाहिए कि ब्रिटिश औपनिवेशिक शासकों की उनकी फूट डालो और राज करो की नीति को लागू करने में साम्प्रदायिक संगठनों ने काफी मदद की। इनमें हिन्दू और मुस्लिम दोनों धर्मों के साम्प्रदायिक संगठन शामिल थे। आरएसएस की विचारधारा में रचे-बसे उसके प्रचारक नाथूराम गोड़से ने महात्मा गांधी की हत्या की। यह व्यापक भारतीय राष्ट्रवाद पर हिन्दू राष्ट्रवाद का पहला बड़ा आक्रमण था
जहां एक ओर आरएसएस ने स्वाधीनता संग्राम को नजरअंदाज किया वहीं दूसरी ओर उसने अपने स्वयंसेवकों को हिन्दू राष्ट्रवाद की संकीर्ण विचारधारा की घुट्टी पिलाई। इन स्वयंसेवकों ने समय के साथ पुलिस, नौकरशाही और राज्यतंत्र के अन्य हिस्सों में घुसपैठ कर ली। आरएसएस ने अपने अनुषांगिक संगठनों का एक बहुत बड़ा ढांचा खड़ा किया। इनमें शामिल हैं अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, वनवासी कल्याण आश्रम, विष्व हिन्दू परिषद व बजरंग दल। संघ के स्वयंसेवकों के परिवारों की महिलाओं ने राष्ट्र सेविका समिति नामक संगठन बनाया।
आरएसएस लगातार ‘पहचान’ से जुड़े मुद्दे उठाता रहा है। ‘गौरक्षा‘ और ‘मुसलमानों के भारतीयकरण‘ के अभियानों के जरिए अल्पसंख्यकों को आतंकित किया जाता रहा है और व्यापक समाज में यह संदेश पहुंचाया जाता रहा है कि मुसलमान, भारतीय नहीं हैं और देश के प्रति उनकी वफादारी संदिग्ध है।
सन् 1980 का दशक आते-आते हिन्दुत्व ब्रिगेड के मुंहजुबानी प्रचार, मीडिया के एक हिस्से के उससे जुड़ाव और इतिहास की स्कूली पाठ्यपुस्तकों के पुनर्लेखन के नतीजे में समाज के बहुत बड़े तबके में मुसलमानों के प्रति संदेह और घृणा का भाव उत्पन्न हो गया। हिन्दुत्ववादी ताकतों ने ही बहुत बेशर्मी से बाबरी मस्जिद को ढहाया। उसके पहले, आडवानी ने रथ यात्रा निकाली, जो अपने पीछे खून की लकीर छोड़ती गई।
इसके बाद साम्प्रदायिक हिंसा में और बढ़ोत्तरी हुई। हिन्दू ‘पहचान‘ को देश की एकमात्र वैध पहचान घोषित कर दिया गया। धार्मिक आधार पर धु्रवीकरण इतना बढ़ गया कि 1992-93 में मुंबई, सूरत और भोपाल में भयावह खूनखराबा हुआ। गुजरात में सन् 2002 में हुई साम्प्रदायिक विभीषिका के बारे में तो हम सब जानते ही हैं।
सन् 1980 के दशक का अंत आते-आते साम्प्रदायिक ताकतों ने मुसलमानों के अलावा ईसाईयों को भी अपने निशाने पर ले लिया। यह कहा जाने लगा कि वे हिन्दुओं का धर्मपरिवर्तन करवा रहे हैं। आदिवासी इलाकों में हिंसा भड़क उठी और इसके नतीजे में सन् 1999 में पाॅस्टर ग्राहम स्टेन्स और उनके दो मासूम बच्चों को जिंदा जला दिया गया। सन् 2008 में कंधमाल में अनेक निर्दोष लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया।
यह सब उस सोच का नतीजा था, जिसे संघ चिंतक एम. एस. गोलवलकर ने आकार दिया था। उनका दावा था कि भारत हमेश से हिन्दू राष्ट्र है व धार्मिक अल्पसंख्यकों को यहां या तो बहुसंख्यकों की दया पर जीना होगा और या फिर उन्हें नागरिक के तौर पर उनके सभी अधिकारों से वंचित कर दिया जाएगा।
सन् 2014 में भाजपा दूसरी बार सत्ता में आई। इसके पहले, सन् 1998 में वह सत्ताधारी एनडीए गठबंधन का हिस्सा थी। उस समय भाजपा को लोकसभा में बहुमत प्राप्त नहीं था इसलिए वह अपना एजेन्डा खुलकर लागू नहीं कर सकी। परंतु फिर भी उसने सफलतापूर्वक स्कूली पाठ्यपुस्तकों का भगवाकरण किया और पुरोहिताई व ज्योतिष जैसे अवैज्ञानिक विषयों को कालेजों और विष्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में शामिल करवाया। उसने हवा का रूख भांपने के लिए संविधान का पुनरावलोकन करने के लिए एक समिति का गठन भी किया।
अब, जबकि भाजपा पूर्ण बहुमत से सत्ता में है, वह बिना किसी लागलपेट के अपना एजेन्डा लागू कर रही है। लगभग सारे राष्ट्रीय संस्थानों में साम्प्रदायिक सोच वाले लोगोें का कब्जा हो गया है। प्रोफेसर के. सुदर्शन राव, जो भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद के अध्यक्ष नियुक्त किए गए हैं, का कहना है कि जाति व्यवस्था से देश बहुत लाभान्वित हुआ है। वे महाभारत और रामायण की ऐतिहासिकता में भी विष्वास करते हैं। यह अलग बात है कि इतिहासविदों की जमात में राव को बहुत सम्मान की दृष्टि से नहीं देखा जाता। नई सरकार संस्कृत भाषा को प्रोत्साहन दे रही है। ऐसा इस तथ्य के बावजूद किया जा रहा है कि संस्कृत कभी आमजनों की भाषा नहीं रही है।
हमारा संविधान सरकार को यह जिम्मेदारी देता है कि वह वैज्ञानिक सोच को प्रोत्साहन दे। इसके ठीक उलट, सरकार विज्ञान में रूढि़वादी और अतार्किक परिकल्पनाओं को ठूंस रही है। हमें अब बताया जा रहा है कि प्राचीन भारत में 200 फीट लंबे विमान थे और प्लास्टिक सर्जरी होती थी। इस महिमामंडन का उद्धेष्यशायद यह साबित करना है कि भारत, हजारों साल पहले विज्ञान के क्षेत्र में इतना उन्नत था जितना कि आज भी विष्व के विकसित देश नहीं हैं। निःसंदेह, भारत के चरक, सुश्रुत और आर्यभट्ट जैसे प्राचीन वैज्ञानिकों ने विज्ञान के क्षेत्र में कई उपलब्धियां हासिल कीं थीं परंतु यह मानना मूर्खता होगी कि प्राचीन भारतीय विज्ञान, आज के विज्ञान से भी अधिक विकसित था। यह, दरअसल, भारतीयों में श्रेष्ठता का दंभ भरने का बचकाना प्रयास है। किसी भी प्रजातंत्र के लिए स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के मूल्य सबसे महत्वपूर्ण होते हैं। अपने हिन्दुत्ववादी एजेन्डे के तहत, भाजपा सरकार संविधान से ‘धर्मनिरपेक्ष‘ व ‘समाजवादी‘ शब्दों को हटाने की कवायद कर रही है। उसे अल्पसंख्यकों की आशंकाओं और चिंताओं की तनिक भी परवाह नहीं है। भारतीय स्वाधीनता संग्राम के मूल्य गंभीर खतरे में हैं। हम आज इतिहास के ऐसे मोड़ पर खड़े हैं जब भारतीय संविधान के अस्तित्व को ही खतरा पैदा हो गया है।
हम अगर अब भी नहीं जागे तो बहुत देर हो जायेगी। हमें इस खतरे का मुकाबला करने के लिए कई कदम उठाने होंगे। हमें दलितों, महिलाओं, श्रमिकों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों के हकों के लिए लड़ना होगा। हमें अपने प्रजातांत्रिक अधिकारों की रक्षा के लिए समान विचारों वाले संगठनों के साथ गठबंधन कर, एक मंच पर आना होगा। प्रजातंत्र और धर्मनिरपेक्षता के पैरोकारों में एकता, समय की मांग है। हमें हाथों में हाथ डाल, एक साथ आगे बढ़ना होगा। गैर-सांप्रदायिक राजनैतिक दलों का गठबंधन बनाकर, सांप्रदायिक शक्तियों को अलग-थलग करना होगा।
हिंदू राष्ट्रवाद की संकीर्ण राजनीति, फासीवादी और धार्मिक कट्टरपंथी शासन व्यवस्था का मिलजुला स्वरूप है। इस तरह के सन में प्रजातांत्रिक स्वतंत्रताएं सिकुड़ती जाती हैं। इसकी शुरूआत भी हो गई है। कुछ पुस्तकों पर प्रतिबंध लगा दिया गया है और कुछ नई पुस्तकें, जिनमें दीनानाथ बत्रा की किताबें शामिल हैं, को प्रोत्साहन दिया जा रहा है।
अब समय आ गया है कि हम सोशल, प्रिंट व इलेक्ट्रोनिक मीडिया में अपने लिए जगह बनायें। हमें विविधता, बहुवाद और उदारवादी मूल्यों को प्रोत्साहन देना है। ये ही हमें मानवीय, प्रजातांत्रिक समाज का निर्माण करने में मदद करेंगे।
-राम पुनियानी
साभार :http://www.hastakshep.com/intervention-hastakshep/views/2015/02/08/%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%9C%E0%A4%BE%E0%A4%A4%E0%A4%82%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%B0-%E0%A4%95%E0%A5%87-%E0%A4%B8%E0%A4%AE%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B7-%E0%A4%95%E0%A5%8C%E0%A4%A8-%E0%A4%B8?utm_source=feedburner&utm_medium=feed&utm_campaign=Feed%3A+Hastakshepcom+%28Hastakshep.com%29

प्रतिक्रांति के हमसफर- किरण बेदी के ‘छोटे गांधी’ कामरेडों के लेनिन हैं!

प्रतिक्रांति का रूप क्रांति जैसा ही होता है, सिर्फ उसका उद्देश्य उलटा होता है

प्रतिक्रांति - केजरीवाल की जीत में धर्मनिरपेक्षता की जीत नहीं है, जैसा कि अति वामपंथियों से लेकर तरह-तरह के राजनीतिक निरक्षर जता रहे हैं।
‘‘इस वक्त समूची दुनिया में जो हो रहा है, वह शायद विश्व इतिहास की सबसे बड़ी प्रतिक्रांति है। यह संगठित है, विश्वव्शपी है और समाज तथा जीवन के हर पहलू को बदल देने वाली है। यहां तक कि प्रकृति और प्राणिजगत को प्रभावित करने वाली है। इक्कीसवीं सदी के बाद भी अगर मानव समाज और सभ्यता की चेतना बची रहेगी, तो आज के समय के बारे में इसी तरह का जिक्र इतिहास की पुस्तकों में होगा। डंकेल संधि की तारीख इस प्रतिक्रांति की शुरुआत की तारीख मानी जा सकती है।’’
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‘‘प्रतिक्रांति का मतलब पतन या क्षय नहीं है। पतन या क्षय वहां होता है, जहां परिवक्वता आ चुकी है या चोटी तक पहुंचा जा चुका है। सोवियत रूस का पतन हो गया; या हम कह सकते हैं कि आधुनिक सभ्यता का क्षय एक अरसे से शुरू हो गया है। इससे भिन्न प्रतिक्रांति का रूप क्रांति जैसा ही होता है, सिर्फ उसका उद्देश्य उलटा होता है। यह भी संगठित होता है और एक विचारधारा से लैस रहता है और कई मूल्यों और आधारों को उखाड़ फेंकने का काम करता है। इसकी विचारधारा ही ऐसी होती है कि इसका आंदोलन अति संगठित छोटे समूहों के द्वारा चलाया गया अभियान होता है।’’ (‘विकल्पहीन नहीं है दुनिया’, किशन पटनायक, राजकमल प्रकाशन, पृ. 172)
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किशन जी का यह कथन फरवरी 1994 का है। तब से दुनिया और भारत में प्रतिक्रांति का पथ उत्तरोत्तर प्रशस्त होता गया है। राजनीति में पिछले तीन-चार सालों में बनी नरेंद्र मोदी और अरविंद केजरीवाल की केंद्रीयता से प्रतिक्रांति की विचारधारा काफी मजबूत स्थिति में पहुंच गई है। गौरतलब है कि दोनों ने लगभग समान प्रचार शैली अपनाकर यह हैसियत हासिल की है जिसमें मीडिया और धन की अकूत ताकत झोंकी गई है। बहुत-से मार्क्सवादियों, समाजवादियों, सामाजिक न्यायवादियों, गांधीवादियों और बुद्धिजीवियों ने अरविंद केजरीवाल का साथ देकर या दिल्ली विधानसभा चुनाव में बिना मांगे समर्थन करके इस प्रतिक्रांति को राजनीतिक स्वीकार्यता प्रदान कर दी है। दिल्ली में ‘आप’ की सरकार बनती है या भाजपा की, इससे इस सच्चाई पर फर्क पड़ने नहीं जा रहा है कि भारत की मुख्यधारा राजनीति में प्रतिक्रांति का सच्चा प्रतिपक्ष नहीं बचा है।
केजरीवाल की राजनीति के समर्थक खुद को यह तसल्ली और दूसरों को यह वास्ता देते रहे हैं कि जल्दी ही केजरीवाल को (अपने पक्ष में) ढब कर लिया जाएगा। हुआ उल्टा है। केजरीवाल ने सबको (अपने पक्ष में) ढब कर लिया है। सुना है किरण बेदी के छोटे गांधीकामरेडों के लेनिन हैं! प्रकाश करात ने कहा बताते हैं कि केजरीवाल का विरोध करने वाले मार्क्स को नहीं समझते हैं। प्रतिक्रांति इस कदर सिर चढ़ कर बोल रही है कि मार्क्स को भी उसके समर्थन में घसीट लिया गया है। यह परिघटना भारत की प्रगतिशील राजनीति की थकान और विभ्रम को दर्शाती है।
ऊपर दिए गए किशन जी के दो अनुच्छेदों के बीच का अनुच्छेद इस प्रकार है, ‘‘समूची बीसवीं सदी में क्रांति की चर्चा होती रही। क्रांति का एक विशिष्ट अर्थ आम जनता तक पहुंच गया था; क्रांति का मतलब संगठित आंदोलन द्वारा उग्र परिवर्तन, जिससे समाज आगे बढ़ेगा और साधारण आदमी का जीवन बेहतर होगा; आखिरी आदमी को नजरअंदाज नहीं किया जाएगा। साधारण आदमी का केंद्रीय महत्व और आखिरी आदमी का अधिकार बीसवीं सदी की राजनीति और अर्थनीति पर जितना हावी हुआ, वैसा कभी नहीं हुआ था।’’
यह लिखते वक्त किशन जी को अंदेशा भी नहीं रहा होगा कि एनजीओ सरगनाओं का गिरोह करोड़पतियों को भी आम आदमी बना देगा ( उनकी समृद्धि बढ़ाने के लिए गरीबों का वोट खींच लेगा) और समाजवादी क्रांति का दावा करने वाले नेता व बुद्धिजीवी उसके समर्थन में सन्नद्ध हो जाएंगे! किशन जी ने अपने उसी लेख में यह कहा है कि ‘‘1980 के दशक में हिंदुत्व के आवरण में एक प्रतिक्रांति का अध्याय शुरू हुआ है देश की राजनैतिक संस्कृति को बदलने के लिए। इस वक्त विश्व-स्तर पर जो प्रतिक्रांति की लहर प्रवाहित है, उससे इसका मेल है; ….।’’ हम जानते हैं पूंजीवादी प्रतिक्रांति के पेटे में चलने वाली सांप्रदायिक प्रतिक्रांति के तहत 1992 में बाबरी मस्जिद का ध्वंस कर दिया गया।
किशन जी ने डंकेल समझौते के साथ शुरू होने वाली प्रतिक्रांति के मुकाबले में वैकल्पिक राजनीति की विचारधारा और संघर्ष खड़ा किया था। साथ ही उन्होंने विस्तार से धर्मनिरपेक्षता का घोषणापत्र लिखा। उनके साथ शामिल रहे ज्यादातर लोग आज प्रतिक्रांति के साथ हैं। जाहिर है, वे किशन जी के जीवन काल में उन्हें धोखा देते रहे और उनके बाद उनके जीवन भर के राजनीतfक उद्यम को नष्ट करने में लगे हैं।
ऐसे में ज्यादा कुछ कहने-सुनने को नहीं बचा है; कुछ बिंदु अलबत्ता देखे जा सकते हैं
(1) मोदी का तिलस्म, जिसे तोड़ने के लिए केजरीवाल को अनालोचित समर्थन दिया गया है, वास्तव में कारपोरेट पूंजीवाद का तिलस्म है। मार्क्सवादियों, समाजवादियों, सामाजिक न्यायवादियों, गांधीवादियों और बुद्धिजीवियों ने केजरीवाल का समर्थन करके उस तिलस्म को दीर्घजीवी बना दिया है।
(2) केजरीवाल की जीत में धर्मनिरपेक्षता की जीत नहीं है, जैसा कि अति वामपंथियों से लेकर तरह-तरह के राजनीतिक निरक्षर जता रहे हैं। मुसलमानों के भय की भित्ति पर जमाई गई धर्मनिरपेक्षता न जाने कितनी बार भहरा कर गिर चुकी है। भारत की धर्मनिरपेक्षता मोदी की जीत के पहले कई बार हार का मुंह देख चुकी है। भारत का विभाजन, गांधी की हत्या, आजादी के बाद अनेक दंगे, 1984 में सिख नागरिकों का कत्लेआम, 1992 में बाबरी मस्जिद का ध्वंस, 2002 का गुजरात कांड – धर्मनिरपेक्षता की हार के अमिट निशान हैं।
(3) धर्मनिरपेक्षता के दावेदार यह सब जानते हैं। लिहाजा, केजरीवाल के समर्थन के पीछे के मनोविज्ञान को समझने की जरूरत है। इनमें से बहुत-से लोग मोदी के हाथों मिली करारी शिकस्त को पचा नहीं पाए हैं। उनका दृढ़ विश्वास था कि मोदी जैसा शख्स भारत का प्रधानमंत्री नहीं बन सकता। उनका विश्वास टूटा है। खीज मिटाने के लिए वे किसी को भी मोदी को हराता देखना चाहते हैं। केजरीवाल को उनके समर्थन का दूसरा अंतर्निहित कारण घृणा की राजनीति से जुड़ा है। सर्वविदित है कि आरएसएस घृणा की राजनीति करता है। धर्मनिरपेक्षतावादियों में भी संघियों के प्रति तुच्छता से लेकर घृणा तक का भाव रहता है। केजरीवाल की जीत से उनके इस भाव की तुष्टी होती है। तीसरा कारण सरकारी पद-प्रतिष्ठा से जुड़ा है। धर्मनिरपेक्षतावादियों को कांग्रेसी राज में सत्ता की मलाई खाने का चस्का लगा हुआ है। उन्हें पता है कांग्रेस दिल्ली में सत्ता में नहीं आने जा रही है। सीधे भाजपा का न्यौता खाने में उन्हें लाज आती है। दिल्ली राज्य में केजरीवाल की सत्ता होने से विभिन्न निकायों/समितियों में शामिल होने में उन्हें लाज का अनुभव नहीं होगा। हालांकि वे एक भूल करते हैं कि एनजीओ वाले राजनीति में आए हैं तो उनके अपने साथी-सगोती निकायों/समितियों में आएंगे। लिहाजा, धमर््निरपेक्षतावादियों के लिए यहां कांग्रेस जैसी खुली दावत नहीं होने जा रही है। मोदी को हराने के नाम पर किए गए समर्थन को वे प्रतिक्रांति के समर्थन तक खींच कर लाएंगे। देखना होगा तब साथी क्या पैंतरा लेते हैं?
(4) केजरीवाल को वोट देने वाले दिल्ली के गरीबों से कोई शिकायत नहीं की जा सकती। मीडिया और बुद्धिजीवियों ने ‘आप’ के आर्थिक और गरीब विरोधी विचारधारात्मक स्रोतों की जानकारी उन तक पहुंचने ही नहीं दी। इस मेहनतकश वर्ग को जल्दी ही पता चलेगा कि उनका इस्तेमाल उन्हीं के खिलाफ किया गया है। हालांकि केजरीवाल के दीवाने ‘आदर्शवादी’ नौजवानों को वैसा नादान नहीं कहा जा सकता। प्रतिभावान कहे जाने वाले इन नौजवानों ने प्रतिक्रांति के पदाति की भूमिका बखूबी निभाई है।
(5) दलित पूंजीवाद के पैरोकार देख लें, शूद्रों समेत ज्यादातर सवर्ण नेता, प्रशासक, विचारक, एनआरआई पूंजीवादी प्रतिक्रांति के साथ जुट गए हैं। पूंजीवाद की दौड़ में बराबरी का मुकाम कभी नहीं आता।
(6) उस अदृश्य एजेंसी का लोहा मानना पड़ेगा जिसने केजरीवाल का यह चुनाव अभियान तैयार किया और चलाया। ‘जनता का सीएम’ कैसे बनता है, यह उस एजेंसी ने बखूबी करके दिखाया है। वह ‘जनता का प्रधान सेवक’ बनाने वाली एजेंसी की टक्कर की ठहरती है।
अंत में सबक। नई आर्थिक नीतियों के साथ शुरू होने वाली प्रतिक्रांति का लगातार प्रतिरोध हुआ है। अब, जबकि सारे भ्रम हट गए हैं, क्रांति का संघर्ष निर्णायक जीत की दिशा में तेज होना चाहिए।
- डॉ. प्रेम सिंह


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Saturday, 10 January 2015

गांधीवादियों को गांधीवाद की समझ नही

अरुण कुमार पानी बाबा से बातचीत

अरुण कुमार पानी बाबा की पुस्तक अन्न जल बाजार में आ चुकी है। यह पुस्तक कोई पाक कला की सामान्य पुस्तक नहीं है बल्कि अन्न जल के भारतीय दर्शन को समझने वाला महत्वपूर्ण दस्तावेज है। खान-पान को लेकर गांधी ने भी काफी लिखा पर गांधीवादी भी उसे व्यवहार में बहुत कम ला पाते है। अन्य राजनैतिक धाराओं में भारतीय खान पान की संस्कृति और समझ को लेकर को ख़ास ब्यौरा नहीं मिलता है। इस पुस्तक में इन सवालों पर भी तीखी टिप्पणी है तो यूरोप के समाज के खानपान पर भी। पानी बाबा का साफ़ कहना है कि गांधीवादियों में ही गांधी की समझ नजर नहीं आती। और समाजवादियों का दिमाग तो सबसे ज्यादा प्रदूषित रहा है। पानी बाबा यहीं नहीं रुकते बल्कि और आगे बढ़कर कहते हैं- यह दुर्भाग्य ही रहा कि लोहिया से लेकर जयप्रकाश नारायण तक को गांधी की कोई समझ नहीं रही दरअसल पानी बाबा भारतीय खान पान को बहुत सी बिमारियों का प्राकृतिक उपचार भी मानते हैं। मसलन मधुमेह का एलोपैथिक में कोई उपचार नहीं है पर खानपान में बदलाव लाकर इससे कोई भी मुक्त हो सकता है। इसका सीधा तरीका है कि गेंहू और चावल छोड़कर दूसरे अनाज का इस्तेमाल किया जाय और थोड़ा सा परहेज किया जाए तो इस बीमारी से छुटकारा मिल सकता है। यह एक बानगी है भारतीय खान पान की जो हर पहर और हर मौसम के हिसाब से अलग अलग होता है। पानी बाबा का मानना है कि ‘भोजन दिव्य हो भव्य नहीं। ‘ देशज परंपरा में ऋतुचर्या और भोजन का गहरा संबंध माना गया है। यहां तक कि दिनचर्या के अनुसार ही ‘ भोजन (सुबह, दोपहर, शाम )की प्रवृति के मुताबिक होना चाहिए।’ हालाँकि खुद पानी बाबा का कहना है ‘हम न तो पाक शास्त्री है, न किसी तरह के भोजन स्वाद पारखी। आवश्यकतावश घर परिवार की रसोई करने का अभ्यास बचपन में डाला गया था, उस नाते उम्र के साथ व्यवस्थित पकाने और मित्रों को खिलाने की रूचि विकसित हो गई। उनसे हुई बातचीत के प्रमुख अंश -
शुरुआत कैसे हुई ?
वर्ष 1981 -82 के दौरान मशहूर कवि आलोचक भाई कमलेश शुक्ल के दिल्ली स्थित कालिंदी कालोनी निवास पर रुकना होता था, बस उन दिनों हम जो रांध कर, मेज पर सजा देते वही उन्हें और चंद पारखी मित्रों को भाने लगा। तभी कमलेश जी ने सुझाया कि हमें ‘पाक कला और संस्कृति ‘ पर कुछ लिखना चाहिए। पर राजनैतिक कार्यकर्त्ता होने के नाते यह सलाह जमी नहीं। अस्सी के दशक में लंबा अकाल पड़ा, तब राजस्थान में व्याप्त कुपोषण का ‘अप्रवीण’ अध्ययन किया था, तब यह समझ विकसित हुई कि भारत में कुपोषण मूलतः एक सांस्कृतिक समस्या है न कि आर्थिक। उस अध्ययन से अर्जित लोक ज्ञान परंपरा से प्रेरित होकर खानपान के विषय पर अनुभव जन्य परामर्श लिखना शुरू हुआ।
आपने भारत एक कृषि प्रधान देश होने की अवधारणा पर सवाल उठाया है ?
भारत या हिंदुस्तान अपने इतिहास स्मृति में कभी भी कृषि प्रधान देश नहीं रहा बल्कि कौशल उद्योग प्रधान व्यवस्था का संघ था। प्राचीन काल से प्रचलित मिट्टी, काठ, धातु, कपड़ा, सौन्दर्य प्रसाधन उद्योग और उनका अत्यंत व्यापार प्रचलन इस तथ्य का प्रत्यक्ष प्रमाण है। आधुनिक इतिहासकार, समाज शास्त्री, राजनेता, हुक्मशाह आदि भारत को क्यों कृषि प्रधान देश मानने लगे यह सवाल उन्हें खुद से पूछना चाहिए।
इसे विस्तार से बताना चाहिए ?
निजी परिवार स्तर पर जीवन निर्वाह के लिए आजादी की पूर्व बेला तक गो पालन सर्वाधिक महत्वपूर्ण उद्दयम व उद्योग था। करीब 95 फीसद ग्रामीण और 25 फीसद शहरी परिवारों में घृत उद्योग अनिवार्य जैसा था। वस्तु विनिमय में गो घृत का प्रतीक मुद्रा टोकन करंसी, तुली सर्वमान्य प्रचलन था। चूंकि गोघृत प्रतीक मुद्रा में स्थापित था इसलिए अस्पृश्यता के दोष से मुक्त था। जैसलमेर, बाड़मेर, जालौर, सांचौर आदि शहरों में अभी हाल तक मंदी का अर्थ घी के व्यापारिक स्थल से ही था। चंदौसी, खुर्जा, हाथरस, अलीगढ, कचौरा, भिंड, मुरैना, ग्वालियर, टुंडला, इटावा, करनाल, पानीपत जैसे सैकड़ों कस्बे, नगर घी व्यापार की मंदी के रूप में जग प्रसिद्ध थे।  दूध दही का व्यापारीकरण सौ सवा सौ बरस से ज्यादा पुरानी प्रथा नहीं रही। लेकिन घी का बड़ा व्यापार था और इस तथ्य के अनेक प्रमाण भी उपलब्ध हैं कि घी की आढ़त से कुल परिणाम दो गुना थी। बीसवीं सदी के मध्य तक गोघृत का बड़ी मात्रा में पश्चिम एशिया और मध्य एशिया को निर्यात होता था। जो इतिहासकार अपने देश में दीर्घकालीन गरीबी और भुखमरी का प्रचार करते नहीं थकते उन्हें इस तथ्य पर अवश्य गौर करना चाहिए कि अंग्रेजों के आगमन के सौ बरस बाद तक भी ग्रामीण और अर्ध शहरी क्षेत्रों में ऐसे कितने और कौन सर जाति परिवार होते थे जिनके घरों में न्यूनतम एक पसेरी दूध निजी उद्योग उपभोग के लिए सुलभ नहीं था ? लेकिन इस वस्तुस्थिति को न नाकारा जा सकता है न उसे दृष्टि ओझल किया जा सकता है कि भारत भूमि पर सांस्कृतिक हिंसा, सामाजिक अन्याय विद्रूप रूप में प्रचलित था और आज भी है
ऐसा कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है कि समूचे देश में किसी भी देसी राज में किसी भी जाति धर्म संप्रदाय समुदाय के पशुओं का गोचर या वन क्षेत्रों में चराई पर प्रतिबंध था, या किसी राजा महाराजा तक को एक इंच भूमि पर भी बाड़ बंदी का अधिकार था ? इस दलील के आधार पर हम दो प्रमुख सत्य उद्घाटित कर रहे हैं। पहला यह कि भारत का सामन्तवाद फ्यूडलिज्म नहीं था दूसरे हमारे सामन्तवाद में राजा से लेकर किसान तक को कृषि या उद्यान तक के लिए एक इंच जमीन पर बाडबंदी की छूट नहीं थी कि वह वेद वाक्य सबे भूमि गोपाल की सिद्धांत का मामूली सा भी उल्लंघन कर सके। इससे हम सिर्फ यह याद दिलाने का प्रयास कर रहे हैं कि भारत भूमि पर बंगाल से लेकर बलूचिस्तान तक और कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक तृप्ति की अनुमति (पेट भरने का अहसास ) दूध और दूध पदार्थों जैसे घी, छाछ, मट्ठा, लस्सी, बर्फी, कलाकंद, रसगुल्ला आदि पर आधारित था न कि मांस या अन्य पर आधारित।
आपने फ्रांस का हवाला दिया है ?
फ्रांस जितना समाज शास्त्र की व्याख्या के लिए जाना जाता है, उससे ज्यादा फैशन और श्रंगार प्रसाधनों के लिए प्रसिद्ध है। उससे भी बड़ी पहचान अंगूरी शराब, पनीर (चीज ) और पावरोटी की विविधता की है। आम फ्रांसीसी को जितना गौरव अपने स्वाद तंतुओं की नफासत पर है, उतना दर्शन शास्त्र पर नहीं है। फ़्रांस समाज में आत्मगौरव के लिए पिछले चार दशक से जो प्रमुख संघर्ष रहा है उसमे पनीर और पावरोटी का वैविध्य प्रमुख मुद्दा है। संक्षेप में मानवीयता और आत्मगौरव आपस में पूरक तत्व है। आत्मगौरव के अहसास में जो स्थान भाव,  भजन ( आध्यात्म ),भाषा ( भाव की अभिव्यक्ति, स्तुति, संगीत, संवाद ), वेशभूषा, भवन या भू परिदृश्य का है, वही भोजन और भेषज का है। जो कौम अपने खानपान के प्रति उदासीन हो जाती है, उसकी भाषा और भाव भी लुप्त हो जाते हैं। पिछले डेढ़ सौ बरस से हिन्दुस्तान भी इस सन्दर्भ में उदासीन हो रहा है। अपने देश में दुनिया के सर्वाधिक कुपोषित बच्चे पल रहे हैं। फुटबाल तो खेला ही नहीं जा रहा, हाकी पिछड़ चुकी है। समस्या सिर्फ फास्ट फूड के नक़ल की नहीं है, गौ-पूज्य देश भैंस के दूध की चाय पी रहा है। आयातित दूध-पावडर और यूरिया निर्मित मावे की मिठाई खा रहा है। 
                                                             O- अंबरीश कुमार
साभार : http://www.hastakshep.com/intervention-hastakshep/interview/2015/01/09/%E0%A4%97%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%A7%E0%A5%80%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%A6%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A5%8B%E0%A4%82-%E0%A4%95%E0%A5%8B-%E0%A4%97%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%A7%E0%A5%80%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%A6?utm_source=feedburner&utm_medium=feed&utm_campaign=Feed%3A+Hastakshepcom+%28Hastakshep.com%29