फासीवाद के साहित्यिक-सांस्कृतिक प्रतिरोध्य के ऐतिहासिक अनुभव, उनका वैचारिक पक्ष और समकालीन सन्दर्भ
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'अन्वेषा' की ओर से 13 मार्च की शाम दिल्ली में आयोजित विचार-गोष्ठी में
जुटे विभिन्न लेखकों-पत्रकारों और संस्कृतिकर्मियों के बीच इस बात पर आम
सहमति बनी कि देश में बढ़ते फासीवादी ख़तरे को पीछे धकेलने के लिए आज
लेखकों-कलाकारों-बुद्धिजीवियों को अभिव्यक्ति के सारे ख़तरे उठाकर सामने
आना होगा।
फासीवाद के साहित्यिक-सांस्कृतिक प्रतिरोध्य के ऐतिहासिक अनुभव, उनका वैचारिक पक्ष और समकालीन सन्दर्भ
फासीवाद – उभार प्रतिरोध्य है, यदि हम अतीत की राख में दबी चिनगारियों को हवा दे सकें!
अध्यक्ष मण्डल और साथियो,
अपने अंधकारमय समय की सबसे प्रत्यक्ष, सबसे आसन्न ख़तरे की चुनौती से प्रेरित होकर हमने इस विचार गोष्ठी का विषय तय किया है।
बेर्टोल्ट ब्रेष्ट
के प्रसिद्ध नाटक ‘आर्तुरो उई का प्रतिरोध्य उत्थान’ (रेजिस्टिबुल राइज़
ऑफ आर्तुरो उई) से कुछ पंक्तियाँ उधार लेकर मैं अपनी बात शुरू करूँगी:
‘हालाँकि कुछ लोग अभी भी इतिहास को वैसे ही ले सकते हैं जैसा वे उसे पाते हैं,
आप लोगों में से ज्यादातर लोग परवाह नहीं करते याद दिलाये जाने की।
अब देवियो और सज्जनो, निश्चय ही यह दिखाता है कि
उभर आये फोड़ों को ज़रूरत है सटीक निदान की
जो व्यक्त किया गया हो किसी घुमावदार भाषा में नहीं
बल्कि ऐसी सीधी-सपाट भाषा में जो गू को गू ही कहती हो।’
हमारे अपने देश में आज जिन लोगों से अपने सभी सांस्कृतिक-साहित्यिक
उपकरणों के जरिए फासिस्ट बर्बरता का मुखर प्रतिरोध करने और इसकी कीमत
चुकाने के लिए तैयार रहने की अपेक्षा की जाती है, उनके बीच जैसी अवसरवादी
चालाकियों, ठण्डी तटस्थताओं, बेरहम-असम्पृक्तताओं, बेशर्म दुरंगेपन और
घिसी-पिटी अनुष्ठानधर्मिता ने घुसपैठ कर ली है, उसे देखते हुए सबसे पहले
यही ज़रूरत शिद्दत के साथ महसूस होती है कि हम भी किसी घुमावदार भाषा में
नहीं, बल्कि बेलागलपेट भाषा में गू को गू कहें, गलाज़त को गलाज़त कहें,
बर्बरता को बर्बरता कहें और हिन्दुत्ववादी कट्टरपंथियों को फासिस्ट
कहें।
यूरोप में फासिस्टी काली आँधी जब तमाम
विभ्रमग्रस्त लोगों की उम्मीदों को झुठलाते हुए, उन्हें हैरानी में
डालते हुए, अपना कहर बरपा करने की शुरुआत कर चुकी थी, उस समय
साहित्य-चिन्तक वाल्टर बेन्यामिन ने लिखा था, ”हमारे सामने जो चीजें
घटित हो रही हैं वे 20वीं सदी में अभी भी सम्भव हैं, इस बात पर मौजूद
हैरानी दार्शनिक नहीं है। यह हैरानी समझने की शुरुआत नहीं है, जब तक कि यह
इस बात की समझ न हो कि इस हैरानी को जन्म देने वाली इतिहास दृष्टि खारिज
किये जाने के काबिल है” (इतिहास-दर्शन विषयक स्थापनाएं)। आज इक्कीसवीं
सदी में भी न केवल भारत में बल्कि पूरी दुनिया के स्तर पर तरह-तरह की
नवफासिस्ट शक्तियों और आन्दोलनों के उभार की आम प्रवृत्ति के रूप में जो
चीज़ घटित हो रही है, उस पर हैरानी उसी को होगी जिसके पास एक वैज्ञानिक
इतिहास-दृष्टि नहीं है, और विश्व-पूंजीवादी अर्थतंत्र के गतिविज्ञान की
सुसंगत समझदारी नहीं है।
निश्चय ही हम एक नये फासिस्ट
उभार के ही ऐतिहासिक गवाह बन रहे हैं। यह हूबहू बीसवीं शताब्दी के
तीसरे-चौथे दशक के फासिज़्म का दुहराव नहीं है। वह फासिज़्म
पूँजीवाद के जिस संकट की ज़मीन पर पैदा हुआ था वह आवर्ती चक्रीय क्रम में
पूँजीवाद को सताते रहने वाले संकट का ही एक रूप था, बस ख़ास बात यह थी कि
वह उस समय तक के इतिहास की विकटतम मन्दी थी जिसे महामन्दी का नाम दिया
गया था। आज पूँजीवाद लगातार थोड़ा उबरते और फिर डूबते हुए दीर्घकालिक
मन्दी के जिस दौर से गुज़र रहा है उसे विश्व अर्थव्यस्था का ढाँचागत
संकट और ‘टर्मिनल डिज़ीज़’ कहा जा रहा है। संकट के इस दौर में आम तौर पर
बुर्जुआ जनवाद और नग्न धुर-दक्षिणपंथी बुर्जुआ तानाशाही के बीच की विभाजक
रेखा कुछ धूमिल पड़ गई है, आम तौर पर राज्य के आचरण और सामाजिक ताने-बाने
के भीतर बुर्जुआ जनवाद के तत्व छीजते-सिकुड़ते चले गये हैं और आम तौर पर
उन्नत से लेकर पिछड़े तक — सभी
बुर्जुआ समाज फासिस्ट संगठनों और फासिस्ट आन्दोलनों के
फलने-फूलने के लिए ज़्यादा उर्वर होते चले गये हैं। अर्थव्यवस्था पर
वित्तीय पूँजी का निर्णायक वर्चस्व और नव-उदारवादी नीतियों पर अमल
के लिए जनसमुदाय पर लगातार दबाव बनाने की ज़रूरत — ये दो चीज़ें बुर्जुआ
जनवाद के क्षरण-विघटन और नव-फासिस्ट उभारों के पीछे बुनियादी कारक तत्व
हैं। बीसवीं शताब्दी की अपेक्षा एक फर्क यह भी है कि मौजूदा फासिज़्म साम्राज्यवाद और देशी पूँजीवाद
के हाथों में थमी ज़ंजीर से बँधे कुत्ते की भूमिका में है। गत शताब्दी में
फासिस्ट उत्पात का मुख्य क्षेत्र विकसित पूँजीवादी विश्व था। इस बार
पूर्व उपनिवेशों के पिछड़े पूँजीवादी समाजों में इसका उभार अधिक प्रचण्ड
है। आज अनेक कारणों से किसी महाविनाशकारी विश्वयुद्ध की सम्भावना
न्यूनातिन्यून है, लेकिन फासिस्ट शक्तियाँ जहाँ भी हैं वहाँ
धार्मिक-नस्ली-नृजातीय-राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आबादी के विरुद्ध लगातार
‘लो इंटेन्सिटी वारफेयर’ चला रही हैं, उनका सामाजिक पार्थक्य बढ़ाकर
‘घेट्टोकरण’ कर रही हैं, उन्हें लगातार आतंक के साये में जीने को मजबूर कर
रही हैं और बीच-बीच में ‘गुजरात 2002′ से लेकर मुज़फ़्फ़रनगर तक को अंजाम
दे रही हैं। साथ ही वे वह सब भी कर रही हैं जिसके प्रतिनिधि उदाहरण ‘आईएस’
और ‘बोको हरम’ हैं।
सत्ता
में हों या न हों, इन ताकतों का कहर लगातार जारी है। सत्ता में न रहते हुए
ये ताकतें मज़दूर आन्दोलनों को धर्म के आधार पर बाँटकर भीतर से तोड़ने का
और सीधे-सीधे उनके खिलाफ़ गुण्डा वाहिनियाँ उतारने का काम करती हैं और
सत्ता में आने पर नवउदारवादी नीतियों को फैसलाकुन ढंग से लागू करते हुए हर
प्रतिरोध को राजकीय दमनतंत्र से कुचलने में ज़्यादा फैसलाकुन रुख अपनाती
हैं। भारत आज इसका प्रतिनिधि उदाहरण है। भाजपा सत्ता में न रहे तब भी
हिन्दुत्ववादी ताकतें अपना खेल जारी रखेंगी। इनको पीछे धकेलने और शिकस्त
देने का सवाल चुनावी हार-जीत का सवाल है ही नहीं। एक फासिस्ट परिघटना के
रूप में, यह एक धुर-प्रतिक्रियावादी सामाजिक-राजनीतिक आन्दोलन है जिसे
कैडर-आधारित फासिस्ट सांगठनिक तंत्र के जरिए तृणमूल स्तर से खड़ा किया
गया है। एक कैडर-आधारित क्रान्तिकारी सांगठनिक तंत्र के जरिए तृणमूल स्तर
से ईंट-ईंट जोड़कर एक क्रान्तिकारी सामाजिक-राजनीतिक आन्दोलन खड़ा करके ही
इसकी रीढ़ तोड़ी जा सकती है। फासिज़्म के विरुद्ध यह लड़ाई लम्बी होगी।
सामरिक मामलों में जैसा छापामार युद्ध या बैरिकेडों का युद्ध या ‘मोबाइल
वारफेयर’ होता है, यह वैसी नहीं होगी बल्कि ‘पोज़ीशनल वारफेयर’ जैसी होगी।
संघ परिवार के अनुषंगी संगठन निम्न मध्य वर्ग ही नहीं, मज़दूर बस्तियों
तक में अपनी नियमित सांस्कृतिक गतिविधियों और सांस्कृतिक संस्थाओं के
रूप में अपनी खन्दकें खोदे हुए हैं और अपने बंकर बनाये हुए हैं। हर
फासिस्ट धारा की तरह हिन्दुत्ववादी फासिस्ट भी मिथकों को ‘कॉमन सेंस’
के रूप में स्थापित करते हैं, ”स्वर्णिम अतीत” की वापसी का
प्रतिक्रियावादी युटोपिया देते हैं, धर्म को संस्कृति और राष्ट्र का
मुख्य संघटक बताते हैं, ”हिन्दू संस्कृति की अवनति” और ”मुसलमानों के
हावी हो जाने” के हौवे का ‘फेटिश’ के रूप में इस्तेमाल करते हैं,और लगातार
अन्धराष्ट्रवादी उन्माद को हवा देते रहते हैं। आम फासिस्ट प्रवृत्ति
का ही अनुसरण करते हुए अपने वैचारिक-राजनीतिक वर्चस्व को स्थापित करने की
लड़ाई ये मुख्यत: संस्कृति के दायरे में लड़ते हैं तथा जनसमुदाय को
‘मिथ्या चेतना’ देने और इतिहसबोध के भ्रष्टीकरण का काम मुख्यत:
सांस्कृतिक-शैक्षिक उपकरणों के जरिए करते हैं। जब राज्य का
सांस्कृतिक-शैक्षिक तंत्र इनके हाथों में आ जाता है तो मामला और संगीन हो
जाता है।
हम फासिज्म के विरुद्ध
अपने संघर्ष को प्रभावी तभी बना सकते हैं जब हम भी नियमित सांस्कृतिक
गतिविधियों, वैकल्पिक सांस्कृतिक संस्थाओं और पारम्परिक से लेकर नये कला
माध्यमों का सहारा लेकर संस्कृति के मोर्चे पर विचारों की लड़ाई में
फासिस्टों से आमने-सामने का मोर्चा लें। हमें अपने सांस्कृतिक कामों की
संकुचित और काफी हद तक कुलीनतावादी हो चुकी चौहद्दियों को तोड़ना होगा।
हमें आम जनता तक पहुँचने और आम जनता को सांस्कृतिक तौर पर संगठित करने के
नये रास्ते, तरीके और उपकरण ईजाद करने होंगे, हमें अनुष्ठानधर्मी,
पैस्सिव और रक्षात्मक रुख का परित्याग करना होगा और जवाबी मोर्चे खोलने
होंगे, हमें सांस्कृतिक मोर्चे के कामों की जड़ीभूत धारणा से मुक्त होना
होगा, हमें इस विभ्रम से छुटकारा पाना होगा कि सूफी और निर्गुण भक्ति
आन्दोलन की धार्मिक सहिष्णुता, गांधीवादी धार्मिक मानवतावाद, नेहरूवादी
खोखली-उथली तार्किकता या सामाजिक जनवादी सुधारवादी रवैये के सहारे
फासिस्टों का सामाजिक आधार कमजोर किया जा सकता है या उन्हें पीछे धकेला
जा सकता है।
इन्हीं सन्दर्भों में पिछली शताब्दी
में फासिज़्म के विरुद्ध साहित्यिक-सांस्कृतिक प्रतिरोध के सिद्धान्त और
व्यवहार की जो समृद्ध अनुभव-सम्पदा है, उससे आज काफी कुछ सीखा जा सकता
है और यह बेहद ज़रूरी है कि हम ऐसा करें। हमें फासिज़्म की सांस्कृतिेक
रणनीति और उसकी प्रतिकारी रणनीति के बारे में ब्रेष्ट, अर्न्स्ट ब्लॉख,
वाल्टर बेन्यामिन , लुकाच आदि द्वारा प्रस्तुत विचारों से सीखना होगा,
हमें 1920-30 के दशकों के यूरोप के मज़दूर वर्गीय संगीत आन्दोलन जैसी
चीज़ों से सीखना होगा, और यही नहीं, हमें दुनिया की तमाम तानाशाहियों के
विरुद्ध लेखकों-कलाकारों द्वारा चलाये गये संघर्षों से भी सीखना होगा। और
सिर्फ सीखना ही नहीं होगा, बल्कि जनता के जीवन और संघर्षों से उनके जुड़ाव,
उनके साहस और उनकी कुर्बानियों से प्रेरणा भी लेनी होगी, क्योंकि सच्चे
और ईमानदार कलाकार सीधे-सादे लोग होते हैं। प्रेरणा लेने लायक चीज़ों से
प्रेरणा लेने में उनका अहं आड़े नहीं आता, न ही उन्हें शर्म महसूस होती
है।
अन्त में मैं एक बार फिर वाल्टर बेन्यामिन को याद करना चाहूँगी। उन्होंने लिखा था:”केवल उसी इतिहासकार को अतीत में से उम्मीद की चिनगारियों को हवा देने का वरदान प्राप्त होगा जो पुरज़ोर ढंग से इस बात का क़ायल है कि दुश्मन यदि जीत गया तो उससे हमारे मर चुके लोग भी सुरक्षित नहीं बचेंगे। और इस दुश्मन ने फ़तहमन्द होना अभी बन्द नहीं किया है।”
आज हमारे देश में भी
उम्मीद की चिनगारियों को वही लेखक-कलाकार-संस्कृतिकर्मी हवा दे सकेगा
जिसे वास्तव में फासिज़्म की आगे बढ़ती धारा के सारे भयंकर नतीजों का
अहसास होगा। यह सही है कि यहाँ भी दुश्मन ने फ़तहमन्द होना अभी बन्द
नहीं किया है। लेकिन ब्रेष्ट के बहुचर्चित नाटक का जैसाकि सन्देश था,
आर्तुरो उई का उत्थान प्रतिरोध्य था। भारत में भी फासिज़्म के नये
आर्तुरो उई का उत्थान अप्रतिरोध्य कत्तई नहीं है।
–कविता कृष्णपल्लवी
(‘फासीवाद के साहित्यिक-सांस्कृतिक प्रतिरोध्य के ऐतिहासिक अनुभव, उनका वैचारिक पक्ष और समकालीन सन्दर्भ‘ — इस विषय पर विगत 13मार्च, 2015 को सम्पन्न ‘अन्वेषा’ की विचार-गोष्ठी का विषय-प्रवर्तन करते हुए दिया गया वक्तव्य)
साभार :http://www.hastakshep.com/intervention-hastakshep/ajkal-current-affairs/2015/03/16/%E0%A4%AB%E0%A4%BE%E0%A4%B8%E0%A5%80%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%A6-%E0%A4%95%E0%A5%87-%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BF%E0%A4%95-%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%82?utm_source=feedburner&utm_medium=feed&utm_campaign=Feed%3A+Hastakshepcom+%28Hastakshep.com%29
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