गांधीवादियों को गांधीवाद की समझ नही
अरुण कुमार पानी बाबा से बातचीत
अरुण कुमार
पानी बाबा की पुस्तक अन्न जल
बाजार में आ चुकी है। यह पुस्तक कोई पाक कला की सामान्य पुस्तक नहीं है
बल्कि अन्न जल के भारतीय दर्शन को समझने वाला महत्वपूर्ण दस्तावेज है।
खान-पान को लेकर गांधी ने भी काफी लिखा पर गांधीवादी भी उसे व्यवहार में
बहुत कम ला पाते है। अन्य राजनैतिक धाराओं में भारतीय खान पान की संस्कृति
और समझ को लेकर को ख़ास ब्यौरा नहीं मिलता है। इस पुस्तक में इन सवालों पर
भी तीखी टिप्पणी है तो यूरोप के समाज के खानपान पर भी। पानी बाबा का साफ़
कहना है कि गांधीवादियों में ही गांधी की समझ नजर नहीं आती। और समाजवादियों
का दिमाग तो सबसे ज्यादा प्रदूषित रहा है। पानी बाबा यहीं नहीं रुकते
बल्कि और आगे बढ़कर कहते हैं- यह दुर्भाग्य ही रहा कि
लोहिया से लेकर जयप्रकाश नारायण तक को गांधी की कोई समझ नहीं रही।
दरअसल पानी बाबा भारतीय खान पान को बहुत सी बिमारियों का प्राकृतिक उपचार
भी मानते हैं। मसलन मधुमेह का एलोपैथिक में कोई उपचार नहीं है पर खानपान
में बदलाव लाकर इससे कोई भी मुक्त हो सकता है। इसका सीधा तरीका है कि गेंहू
और चावल छोड़कर दूसरे अनाज का इस्तेमाल किया जाय और थोड़ा सा परहेज किया
जाए तो इस बीमारी से छुटकारा मिल सकता है। यह एक बानगी है भारतीय खान पान
की जो हर पहर और हर मौसम के हिसाब से अलग अलग होता है। पानी बाबा का मानना
है कि ‘भोजन दिव्य हो भव्य नहीं। ‘
देशज परंपरा
में ऋतुचर्या और भोजन का गहरा संबंध माना गया है। यहां तक कि दिनचर्या के
अनुसार ही ‘ भोजन (सुबह, दोपहर, शाम )की प्रवृति के मुताबिक होना चाहिए।’
हालाँकि खुद पानी बाबा का कहना है ‘हम न तो पाक शास्त्री है, न किसी तरह के
भोजन स्वाद पारखी। आवश्यकतावश घर परिवार की रसोई करने का अभ्यास बचपन में
डाला गया था, उस नाते उम्र के साथ व्यवस्थित पकाने और मित्रों को खिलाने की
रूचि विकसित हो गई। उनसे हुई बातचीत के प्रमुख अंश -
शुरुआत कैसे हुई ?
वर्ष
1981 -82 के दौरान मशहूर कवि आलोचक भाई कमलेश शुक्ल के दिल्ली स्थित
कालिंदी कालोनी निवास पर रुकना होता था, बस उन दिनों हम जो रांध कर, मेज पर
सजा देते वही उन्हें और चंद पारखी मित्रों को भाने लगा। तभी कमलेश जी ने
सुझाया कि हमें ‘पाक कला और संस्कृति
‘ पर कुछ लिखना चाहिए। पर राजनैतिक कार्यकर्त्ता होने के नाते यह सलाह जमी
नहीं। अस्सी के दशक में लंबा अकाल पड़ा, तब राजस्थान में व्याप्त कुपोषण का
‘अप्रवीण’ अध्ययन किया था, तब यह समझ विकसित हुई कि भारत में कुपोषण मूलतः एक सांस्कृतिक समस्या है न कि आर्थिक। उस अध्ययन से अर्जित लोक ज्ञान परंपरा से प्रेरित होकर खानपान के विषय पर अनुभव जन्य परामर्श लिखना शुरू हुआ।
आपने भारत एक कृषि प्रधान देश होने की अवधारणा पर सवाल उठाया है ?
भारत
या हिंदुस्तान अपने इतिहास स्मृति में कभी भी कृषि प्रधान देश नहीं रहा
बल्कि कौशल उद्योग प्रधान व्यवस्था का संघ था। प्राचीन काल से प्रचलित
मिट्टी, काठ, धातु, कपड़ा, सौन्दर्य प्रसाधन उद्योग और उनका अत्यंत व्यापार
प्रचलन इस तथ्य का प्रत्यक्ष प्रमाण है। आधुनिक इतिहासकार, समाज शास्त्री,
राजनेता, हुक्मशाह आदि भारत को क्यों कृषि प्रधान देश मानने लगे यह सवाल
उन्हें खुद से पूछना चाहिए।
इसे विस्तार से बताना चाहिए ?
निजी परिवार स्तर पर जीवन निर्वाह के लिए आजादी की पूर्व बेला तक गो पालन
सर्वाधिक महत्वपूर्ण उद्दयम व उद्योग था। करीब 95 फीसद ग्रामीण और 25 फीसद
शहरी परिवारों में घृत उद्योग अनिवार्य जैसा था। वस्तु विनिमय में गो घृत
का प्रतीक मुद्रा टोकन करंसी, तुली सर्वमान्य प्रचलन था। चूंकि गोघृत
प्रतीक मुद्रा में स्थापित था इसलिए अस्पृश्यता के दोष से मुक्त था।
जैसलमेर, बाड़मेर, जालौर, सांचौर आदि शहरों में अभी हाल तक मंदी का अर्थ घी
के व्यापारिक स्थल से ही था। चंदौसी, खुर्जा, हाथरस, अलीगढ, कचौरा, भिंड,
मुरैना, ग्वालियर, टुंडला, इटावा, करनाल, पानीपत जैसे सैकड़ों कस्बे, नगर घी
व्यापार की मंदी के रूप में जग प्रसिद्ध थे। दूध दही का व्यापारीकरण सौ
सवा सौ बरस से ज्यादा पुरानी प्रथा नहीं रही। लेकिन घी का बड़ा व्यापार था
और इस तथ्य के अनेक प्रमाण भी उपलब्ध हैं कि घी की आढ़त से कुल परिणाम दो
गुना थी। बीसवीं सदी के मध्य तक
गोघृत का बड़ी मात्रा में पश्चिम एशिया और मध्य एशिया को निर्यात होता
था। जो इतिहासकार अपने देश में दीर्घकालीन गरीबी और भुखमरी का प्रचार करते
नहीं थकते उन्हें इस तथ्य पर अवश्य गौर करना चाहिए कि अंग्रेजों के आगमन के
सौ बरस बाद तक भी ग्रामीण और अर्ध शहरी क्षेत्रों में ऐसे कितने और कौन सर
जाति परिवार होते थे जिनके घरों में न्यूनतम एक पसेरी दूध निजी उद्योग
उपभोग के लिए सुलभ नहीं था ? लेकिन इस वस्तुस्थिति को न नाकारा जा सकता है न
उसे दृष्टि ओझल किया जा सकता है कि
भारत भूमि पर सांस्कृतिक हिंसा, सामाजिक अन्याय विद्रूप रूप में प्रचलित था और आज भी है।
ऐसा
कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है कि समूचे देश में किसी भी देसी राज में किसी भी
जाति धर्म संप्रदाय समुदाय के पशुओं का गोचर या वन क्षेत्रों में चराई पर
प्रतिबंध था, या किसी राजा महाराजा तक को एक इंच भूमि पर भी बाड़ बंदी का
अधिकार था ? इस दलील के आधार पर हम दो प्रमुख सत्य उद्घाटित कर रहे हैं।
पहला यह कि
भारत का सामन्तवाद फ्यूडलिज्म नहीं था दूसरे हमारे सामन्तवाद में राजा से
लेकर किसान तक को कृषि या उद्यान तक के लिए एक इंच जमीन पर बाडबंदी की छूट
नहीं थी कि वह वेद वाक्य सबे भूमि गोपाल की सिद्धांत का मामूली सा भी
उल्लंघन कर सके। इससे हम सिर्फ यह याद दिलाने का प्रयास कर रहे हैं कि भारत
भूमि पर बंगाल से लेकर बलूचिस्तान तक और कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक
तृप्ति की अनुमति (पेट भरने का अहसास ) दूध और दूध पदार्थों जैसे घी, छाछ,
मट्ठा, लस्सी, बर्फी, कलाकंद, रसगुल्ला आदि पर आधारित था न कि मांस या अन्य
पर आधारित।
आपने फ्रांस का हवाला दिया है ?
फ्रांस
जितना समाज शास्त्र की व्याख्या के लिए जाना जाता है, उससे ज्यादा फैशन और
श्रंगार प्रसाधनों के लिए प्रसिद्ध है। उससे भी बड़ी पहचान अंगूरी शराब,
पनीर (चीज ) और पावरोटी की विविधता की है। आम फ्रांसीसी को जितना गौरव अपने
स्वाद तंतुओं की नफासत पर है, उतना दर्शन शास्त्र पर नहीं है। फ़्रांस समाज
में आत्मगौरव के लिए पिछले चार दशक से जो प्रमुख संघर्ष रहा है उसमे पनीर
और पावरोटी का वैविध्य प्रमुख मुद्दा है। संक्षेप में मानवीयता और आत्मगौरव
आपस में पूरक तत्व है। आत्मगौरव के अहसास में जो स्थान भाव, भजन (
आध्यात्म ),भाषा ( भाव की अभिव्यक्ति, स्तुति, संगीत, संवाद ), वेशभूषा,
भवन या भू परिदृश्य का है, वही भोजन और भेषज का है।
जो कौम अपने खानपान के प्रति उदासीन हो जाती है, उसकी भाषा और भाव भी लुप्त हो जाते हैं।
पिछले डेढ़ सौ बरस से हिन्दुस्तान भी इस सन्दर्भ में उदासीन हो रहा है।
अपने देश में दुनिया के सर्वाधिक कुपोषित बच्चे पल रहे हैं। फुटबाल तो खेला
ही नहीं जा रहा, हाकी पिछड़ चुकी है। समस्या सिर्फ फास्ट फूड के नक़ल की
नहीं है, गौ-पूज्य देश भैंस के दूध की चाय पी रहा है। आयातित दूध-पावडर और
यूरिया निर्मित मावे की मिठाई खा रहा है।
O- अंबरीश कुमार
साभार : http://www.hastakshep.com/intervention-hastakshep/interview/2015/01/09/%E0%A4%97%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%A7%E0%A5%80%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%A6%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A5%8B%E0%A4%82-%E0%A4%95%E0%A5%8B-%E0%A4%97%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%A7%E0%A5%80%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%A6?utm_source=feedburner&utm_medium=feed&utm_campaign=Feed%3A+Hastakshepcom+%28Hastakshep.com%29
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