Sunday, 8 March 2015

ओम थानवी क्यों संघ परिवार के बाप “आप” का प्रवक्ता नजर आ रहे हैं

ओम थानवी क्यों संघ परिवार के बाप “आप” का प्रवक्ता नजर आ रहे हैं

केसरिया रंग की होली अब खूब खेली जाएगी और इस रंगतर्पण में खून की नदियों में सुलगती आग के तमाम ज्वालामुखी दफन हो जाएंगे।

आम आदमी पार्टी को हमारे संपादक ओम थानवी और हमारे अत्यंत प्रिय कामरेड अभय कुमार दुबे आंतरिक लोकतंत्र का अनूठा प्रयोग बताते हुए योगेंद्र यादव के स्थानापन्न पार्टी प्रवक्ता नजर आ रहे हैं।
इसी बीच नैनीताल से हमारे मित्र उमेश तिवारी के फेसबुक पोस्ट से पता चला कि आप के  मीडिया मुख आशुतोष हमारे दिनेशपुर में किसी रिसाले का विमोचन कर आये हैं।
इसी बीच प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव को ‘आप’ की पॉलिटिकल अफेयर्स कमिटी (पीएसी) से निकाले जाने के बाद भी पार्टी में घमासान जारी है। राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य और महाराष्ट्र से पार्टी के बड़े नेताओं ने बागी रुख अख्तियार करते हुए सीधे-सीधे अरविंद केजरीवाल पर उंगली उठाई है। उन्होंने कहा कि अरविंद केजरीवाल ने साफ-साफ कह दिया था योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण पीएसी में रहते हैं, तो मैं काम नहीं कर पाऊंगा। मयंक गांधी ने ब्लॉग लिखकर यह भी कहा कि वह जानते हैं कि इस खुलासे से उन्हें भी इसके नतीजे भुगतने पड़ सकते हैं, लेकिन वह इसके लिए तैयार हैं।
ओम थानवी की संपादकीय भूमिका से नाराज होने का सवाल अभी पैदा हुआ नहीं है और जनसत्ता अभी केसरिया कारपोरेट सुनामी के खिलाफ मोर्चाबंद है। लेकिन समझ में नहीं आ रहा है कि हमारे संपादक क्यों आम आदमी पार्टी का प्रवक्ता नजर आ रहे हैं।यह हमारे लिए खुश होने का मौका नहीं है।
विडंबना है कि आम आदमी के आंतरिक लोकतंत्र का बचाव करते हुए वामदलों के आंतरिक लोकतंत्र का हवाला देते नजर आये अभय कुमार दुबे जी।
क्रांति का आत्मसंघर्ष जैसे अध्ययन के प्रणेता की ओर से आम आदमी पार्टी पर यह वाम ठप्पा भी अजब गजब है।
ये दो लोग हैं, जिन्हें मैं मीडिया कुल में दूसरों से पृथक मानकर चल रहा था। हमारे आदरणीय मित्र पी साईनाथ का हिंदू से अलगाव से निर्णायक तौर पर साबित हो गया कि भारतीय मीडिया और खासतौर पर अंग्रेजी मीडिया में हम तो कोई घास फूस नहीं हैं, लेकिन यहां पी साईनाथ जैसे ग्रामीण भारत और कृषि भारत के प्रतिनिधित्व की जरूरत है नहीं।
विडंबना यह है कि कारपोरेट प्रायोजित मंच से साईनाथ अब वैकल्पिक मीडिया की बात कर रहे हैं और उनके साथ जुड़े हैं हमारे मित्र जयदीप हार्डीकर भी ,जो अब भी दि टेलीग्राफ में बने हुए हैं। हम लोग चाहकर भी उनकी पांत में शामिल हो नहीं सकते।
खास बात यह है कि बिजली पानी भ्रष्टाचार और अन्ना ब्रिगेड के सत्याग्रह और राजनीति दल में आंतरिक लोकतंत्र को छोड़कर देश के दूसरे अहम मुद्दों को स्पर्श भी नहीं कर रहा है वैकल्पिक राजनीति का यह अनूठा प्रयोग और हमारे हिसाब से दूबे जी को इसका अवश्य ही नोट लेना चाहिए।
थानवी जी को यह देखना चाहिए  कि जिस आम आदमी पार्टी का वे बचाव कर रहे हैं, वह आर्थिक मुद्दों पर और हिंदू साम्राज्यवादी कारपोरेट केसरिया राज पर खामोश है।
हम अब भी हमारे मित्रों की असहमति के बावजूद मानते हैं कि ओम थानवी प्रभाष जोशी से बेहतर संपादक हैं।
हम यह भी नहीं मानते कि आप के कोटे से थानवी जी या दुबे जी राज्यसभा के टिकट के जुगाड़ में बढ़ चढ़कर महिमामंडन कर रहे हैं संघ परिवार के बाप आप का। उनका यह मोह जितनी जल्दी भंग हो,उतना ही अच्छा है क्योंकि हम जनमोर्चे पर दूबे जी और थानवी जैसे लोगों की प्रासंगिकता बनाये रखने के हक में हैं।
यह कहने के लिए मुझे इसका डर नहीं है कि मैं जनसत्ता में ही एक अदना सा पत्रकार हूं जो अपने संपादक की आलोचना कर रहा है।
जनसत्ता में अब भी वह आंतरिक लोकतंत्र हैं और विडंबना यह है कि थानवी जी इसे आम आदमी जैसे हवाहवाई विकल्प के साथ चस्पां करने पर तुले हुए हैं और उन्हें आप प्रवक्ता के रुप में देखकर हमें दुःख हो रहा है।
सबसे दुखद बात तो यह है कि आर्थिक प्रगति और मेकिंग इन के नाम जो दिनदहाड़े रोज रोज डकैतियां हो रही हैं, जो रोज-रोज देश नीलामी पर चढ़ रहा है, उस पर मीडिया का पक्ष समझने में कोई दिक्कत नहीं है, कारपोरेट फडिंग और कारपोरेट लाबिइंग से चल रही मुख्यधारा की राजनीति की कथनी करनी अलग-अलग और संसदीय सहमति के फंडे को समझने में भी कोई खास दिक्कत नहीं होनी चाहिए। सिर्फ जनपक्ष का फंडा पहेली है।
नंगा सच यह है कि सबसे खतरनाक तो इस केसरिया कारपोरेट तिसिस्म के विकल्प बतौर बनाये जा रहे अनूठे राजनीतिक तिलिस्म का फंडा है, जिसका आम आदमी सिर्फ कारपोरेट राजधानी दिल्ली का नागरिक है और जिसे सस्ती बिजली और मुफ्त पानी चाहिए, जिसके पेट में न भूख है और न जिसके हाथ खाली है, जो न आफसा के गुलाम हैं और न सलवा जुड़ुम के तहज वधस्थल पर वह खड़ा है और न वह जलजंगल जमीन आजीविका मानवाधिकार नागरिक अधिकार प्रकृति और पर्यावरण से बेदखल है और उसके कंधे फर इस मुकम्मल शेयर बाजार की अनुत्पादक अर्थव्यवस्था का कोई बोझ नहीं है।
पलाश विश्वास
साभार : http://www.hastakshep.com/%E0%A4%AE%E0%A5%80%E0%A4%A1%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%BE/%E0%A4%9A%E0%A5%8C%E0%A4%A5%E0%A4%BE-%E0%A4%96%E0%A4%AE%E0%A5%8D%E0%A4%AD%E0%A4%BE/2015/03/05/%E0%A4%93%E0%A4%AE-%E0%A4%A5%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A4%B5%E0%A5%80-%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A5%8B%E0%A4%82-%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%98-%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B0

 

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