किया है मैंने प्रतिकार
किया है मैंने प्रतिकार
तुम्हारे मानदंडों का सत्ता तुम्हारी बौखला गई
मेरे एक कदम से
बेड़ियों में बंधी मैं
अपना संघर्ष टटोलती रही
सर्वदा से ही मूक मैं
प्रश्नों को आंसुओं से धार देती रही
आज, मेरे विचार
मेरे स्वप्न
मेरी स्मृतियाँ
मेरे अनुभव सिर्फ मेरे हो होंगे
नहीं चाहिए
वह आडंबरों का ढाँचा
जो मेरे अस्तित्व पर ही
प्रश्न-चिन्ह लगाता है
डरो, सत्ताधारियों डरों
अपने वर्चस्व के हिलने पर
और तुम्हें डरना भी चाहिए
क्योंकि
तुम्हें वापस जो कर रही हूँ
तुम्हारे बंधन
तुम्हारे मापदंड
तुम्हारे शोषण
तुम्हारी इच्छा
तुम्हारा दासत्व
और कह दो
अपने अहं को
आक्रोश के तीखे स्वरों की
दस्तक सुनने की आदत डाल लें॥
---- राजकुमारी (शोध-छात्रा), हिन्दी विभाग, लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ
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