Sunday, 17 August 2014



मन की कुंठा 


 मन की कुंठा जब बाहर आती है तब उसकी परिणति सार्थक नहीं होती। कुछ लोग चेतन अवस्था में करते हैं तो कुछ अवचेतन अवस्था में। लेकिन परिणति हमेशा असामाजिक ही होती है। वह चाहे काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर साहब हो या उनके जैसे लोग। कई लोग अपने फेसबुक पोस्ट पर प्रोफेसर साहब के बचाव में जिस पुरुष पक्षधरता की बात कर रहे हैं उससे बहुतायत लोगों का असहमत होना स्वभाविक भी है। सरेआम पिता-पुत्र द्वारा एक पत्नी और माँ को मारना क्या सामाजिक न्याय की श्रेणी में आता है ? क्या कानूनन गुजारा-भत्ता माँगना किसी के स्वाभिमान से बढ़कर है ? क्या अपने प्रति हो रहे अन्याय को समाज के सामने लाना सामाजिक रूप से गुनाह है ? अपने वाजिब हक के लिए किसी अन्य माध्यम का सहारा लेना क्या कानूनन जुर्म है ? आदि सवाल हैं जिसके तह में जाने की जरूरत थी। शायद ! ऐसे लोगों की दृष्टि इस ओर नहीं गयी। वरना इस तरह की ओछी बाते नहीं करते। समाज के बुद्धिजीवी लोग आधुनिक युग में एक स्त्री की छवि जिस रूप में गढ़ रहे हैं  यह तो आने वाला समय ही बताएगा । लेकिन एक बात तो तय है कि इस तरह के लोगों से समाज का हित होने वाला नहीं है।
अरविन्द कुमार उपाध्याय

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