Monday, 23 June 2014



यह आवाज मुझे सच्ची नहीं लगती

एक चिथड़ा तक नहीं बदन पर मेरे कपड़े का गुजरात की सड़कों पर
दंगाइयों से बचकर भागती एक औरत हूँ मैं
छीनकर गोद से मेरी मेरे बच्चे को पछीट दिया गया है सड़क पर
पछीट दिए जाने का मतलब समझते हैं न आप,
एक साथ कई हाथों से बुरी तरह स्तन मसले गए हैं मेरे
उस वक्त उनसे निकलते दूध की चिपचिपाहट को भी
नहीं किया गया है अपनी हथेलियों पर महसूस
जननांग में घुसेड़ कर मेरे डंडा फहराया गया है उस पर एक ध्वज

भाइयों पिताओं और बुजुर्गों के सामने मुझे अपने
करके एकदम नंगा दौड़ाया गया है सड़कों पर
जिन्होंने पाल पोसकर किया मुझे बड़ा सँजोए मुझे लेकर सपने
सोचती हूँ अपने सामने मुझे नंगा दौड़ते हुए उन्हें कैसा लगा होगा
दौड़ाते समय मेरी पीठ के नीचे बुरी तरह बरसाए गए हैं डंडे

पुरुषों की तरह मुझसे नहीं पूछा गया मेरा नाम
नहीं की गई है कोशिश जानने की मेरा धर्म
उतरवा कर कपड़े नहीं की गई है मेरी पहचान
पहनावे के आधार पर दूर से ही चीन्ह लिया गया है मुझे
लेकिन मेरे भाइयों और पिताओं की गर्दनों की तरह तलवार से
एक झटके में नहीं उड़ाई गई है मेरी गर्दन
बल्कि मेरे मौत मांगने से पहले कुत्तों की तरह
बख्श देने के लिए जुड़े मेरे हाथों को चाटा गया है
रौंदा गया है मेरे आंसुओं को वीर्य तले

दूर कहीं से चलकर आवाज आती है दंगा खत्म हो गया है
सच्ची नहीं लगती मुझे यह आवाज
मुझे नहीं लगता दंगा खत्म हुआ है अभी
ये दंगा कभी खत्म होगा भी नहीं, मेरे और
मेरी देह के खिलाफ ये दंगा सदियों से जारी है
और जारी है इन दंगाइयों से बचकर मेरा भागना
जैसे मैं इन दिनों भाग रही हूँ गुजरात की सड़कों पर
                   (साभार, नया पथ, जनवरी-मार्च, पवन कारण, पृ. १३९-१४०)
 


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