Saturday, 10 January 2015

गांधीवादियों को गांधीवाद की समझ नही

अरुण कुमार पानी बाबा से बातचीत

अरुण कुमार पानी बाबा की पुस्तक अन्न जल बाजार में आ चुकी है। यह पुस्तक कोई पाक कला की सामान्य पुस्तक नहीं है बल्कि अन्न जल के भारतीय दर्शन को समझने वाला महत्वपूर्ण दस्तावेज है। खान-पान को लेकर गांधी ने भी काफी लिखा पर गांधीवादी भी उसे व्यवहार में बहुत कम ला पाते है। अन्य राजनैतिक धाराओं में भारतीय खान पान की संस्कृति और समझ को लेकर को ख़ास ब्यौरा नहीं मिलता है। इस पुस्तक में इन सवालों पर भी तीखी टिप्पणी है तो यूरोप के समाज के खानपान पर भी। पानी बाबा का साफ़ कहना है कि गांधीवादियों में ही गांधी की समझ नजर नहीं आती। और समाजवादियों का दिमाग तो सबसे ज्यादा प्रदूषित रहा है। पानी बाबा यहीं नहीं रुकते बल्कि और आगे बढ़कर कहते हैं- यह दुर्भाग्य ही रहा कि लोहिया से लेकर जयप्रकाश नारायण तक को गांधी की कोई समझ नहीं रही दरअसल पानी बाबा भारतीय खान पान को बहुत सी बिमारियों का प्राकृतिक उपचार भी मानते हैं। मसलन मधुमेह का एलोपैथिक में कोई उपचार नहीं है पर खानपान में बदलाव लाकर इससे कोई भी मुक्त हो सकता है। इसका सीधा तरीका है कि गेंहू और चावल छोड़कर दूसरे अनाज का इस्तेमाल किया जाय और थोड़ा सा परहेज किया जाए तो इस बीमारी से छुटकारा मिल सकता है। यह एक बानगी है भारतीय खान पान की जो हर पहर और हर मौसम के हिसाब से अलग अलग होता है। पानी बाबा का मानना है कि ‘भोजन दिव्य हो भव्य नहीं। ‘ देशज परंपरा में ऋतुचर्या और भोजन का गहरा संबंध माना गया है। यहां तक कि दिनचर्या के अनुसार ही ‘ भोजन (सुबह, दोपहर, शाम )की प्रवृति के मुताबिक होना चाहिए।’ हालाँकि खुद पानी बाबा का कहना है ‘हम न तो पाक शास्त्री है, न किसी तरह के भोजन स्वाद पारखी। आवश्यकतावश घर परिवार की रसोई करने का अभ्यास बचपन में डाला गया था, उस नाते उम्र के साथ व्यवस्थित पकाने और मित्रों को खिलाने की रूचि विकसित हो गई। उनसे हुई बातचीत के प्रमुख अंश -
शुरुआत कैसे हुई ?
वर्ष 1981 -82 के दौरान मशहूर कवि आलोचक भाई कमलेश शुक्ल के दिल्ली स्थित कालिंदी कालोनी निवास पर रुकना होता था, बस उन दिनों हम जो रांध कर, मेज पर सजा देते वही उन्हें और चंद पारखी मित्रों को भाने लगा। तभी कमलेश जी ने सुझाया कि हमें ‘पाक कला और संस्कृति ‘ पर कुछ लिखना चाहिए। पर राजनैतिक कार्यकर्त्ता होने के नाते यह सलाह जमी नहीं। अस्सी के दशक में लंबा अकाल पड़ा, तब राजस्थान में व्याप्त कुपोषण का ‘अप्रवीण’ अध्ययन किया था, तब यह समझ विकसित हुई कि भारत में कुपोषण मूलतः एक सांस्कृतिक समस्या है न कि आर्थिक। उस अध्ययन से अर्जित लोक ज्ञान परंपरा से प्रेरित होकर खानपान के विषय पर अनुभव जन्य परामर्श लिखना शुरू हुआ।
आपने भारत एक कृषि प्रधान देश होने की अवधारणा पर सवाल उठाया है ?
भारत या हिंदुस्तान अपने इतिहास स्मृति में कभी भी कृषि प्रधान देश नहीं रहा बल्कि कौशल उद्योग प्रधान व्यवस्था का संघ था। प्राचीन काल से प्रचलित मिट्टी, काठ, धातु, कपड़ा, सौन्दर्य प्रसाधन उद्योग और उनका अत्यंत व्यापार प्रचलन इस तथ्य का प्रत्यक्ष प्रमाण है। आधुनिक इतिहासकार, समाज शास्त्री, राजनेता, हुक्मशाह आदि भारत को क्यों कृषि प्रधान देश मानने लगे यह सवाल उन्हें खुद से पूछना चाहिए।
इसे विस्तार से बताना चाहिए ?
निजी परिवार स्तर पर जीवन निर्वाह के लिए आजादी की पूर्व बेला तक गो पालन सर्वाधिक महत्वपूर्ण उद्दयम व उद्योग था। करीब 95 फीसद ग्रामीण और 25 फीसद शहरी परिवारों में घृत उद्योग अनिवार्य जैसा था। वस्तु विनिमय में गो घृत का प्रतीक मुद्रा टोकन करंसी, तुली सर्वमान्य प्रचलन था। चूंकि गोघृत प्रतीक मुद्रा में स्थापित था इसलिए अस्पृश्यता के दोष से मुक्त था। जैसलमेर, बाड़मेर, जालौर, सांचौर आदि शहरों में अभी हाल तक मंदी का अर्थ घी के व्यापारिक स्थल से ही था। चंदौसी, खुर्जा, हाथरस, अलीगढ, कचौरा, भिंड, मुरैना, ग्वालियर, टुंडला, इटावा, करनाल, पानीपत जैसे सैकड़ों कस्बे, नगर घी व्यापार की मंदी के रूप में जग प्रसिद्ध थे।  दूध दही का व्यापारीकरण सौ सवा सौ बरस से ज्यादा पुरानी प्रथा नहीं रही। लेकिन घी का बड़ा व्यापार था और इस तथ्य के अनेक प्रमाण भी उपलब्ध हैं कि घी की आढ़त से कुल परिणाम दो गुना थी। बीसवीं सदी के मध्य तक गोघृत का बड़ी मात्रा में पश्चिम एशिया और मध्य एशिया को निर्यात होता था। जो इतिहासकार अपने देश में दीर्घकालीन गरीबी और भुखमरी का प्रचार करते नहीं थकते उन्हें इस तथ्य पर अवश्य गौर करना चाहिए कि अंग्रेजों के आगमन के सौ बरस बाद तक भी ग्रामीण और अर्ध शहरी क्षेत्रों में ऐसे कितने और कौन सर जाति परिवार होते थे जिनके घरों में न्यूनतम एक पसेरी दूध निजी उद्योग उपभोग के लिए सुलभ नहीं था ? लेकिन इस वस्तुस्थिति को न नाकारा जा सकता है न उसे दृष्टि ओझल किया जा सकता है कि भारत भूमि पर सांस्कृतिक हिंसा, सामाजिक अन्याय विद्रूप रूप में प्रचलित था और आज भी है
ऐसा कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है कि समूचे देश में किसी भी देसी राज में किसी भी जाति धर्म संप्रदाय समुदाय के पशुओं का गोचर या वन क्षेत्रों में चराई पर प्रतिबंध था, या किसी राजा महाराजा तक को एक इंच भूमि पर भी बाड़ बंदी का अधिकार था ? इस दलील के आधार पर हम दो प्रमुख सत्य उद्घाटित कर रहे हैं। पहला यह कि भारत का सामन्तवाद फ्यूडलिज्म नहीं था दूसरे हमारे सामन्तवाद में राजा से लेकर किसान तक को कृषि या उद्यान तक के लिए एक इंच जमीन पर बाडबंदी की छूट नहीं थी कि वह वेद वाक्य सबे भूमि गोपाल की सिद्धांत का मामूली सा भी उल्लंघन कर सके। इससे हम सिर्फ यह याद दिलाने का प्रयास कर रहे हैं कि भारत भूमि पर बंगाल से लेकर बलूचिस्तान तक और कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक तृप्ति की अनुमति (पेट भरने का अहसास ) दूध और दूध पदार्थों जैसे घी, छाछ, मट्ठा, लस्सी, बर्फी, कलाकंद, रसगुल्ला आदि पर आधारित था न कि मांस या अन्य पर आधारित।
आपने फ्रांस का हवाला दिया है ?
फ्रांस जितना समाज शास्त्र की व्याख्या के लिए जाना जाता है, उससे ज्यादा फैशन और श्रंगार प्रसाधनों के लिए प्रसिद्ध है। उससे भी बड़ी पहचान अंगूरी शराब, पनीर (चीज ) और पावरोटी की विविधता की है। आम फ्रांसीसी को जितना गौरव अपने स्वाद तंतुओं की नफासत पर है, उतना दर्शन शास्त्र पर नहीं है। फ़्रांस समाज में आत्मगौरव के लिए पिछले चार दशक से जो प्रमुख संघर्ष रहा है उसमे पनीर और पावरोटी का वैविध्य प्रमुख मुद्दा है। संक्षेप में मानवीयता और आत्मगौरव आपस में पूरक तत्व है। आत्मगौरव के अहसास में जो स्थान भाव,  भजन ( आध्यात्म ),भाषा ( भाव की अभिव्यक्ति, स्तुति, संगीत, संवाद ), वेशभूषा, भवन या भू परिदृश्य का है, वही भोजन और भेषज का है। जो कौम अपने खानपान के प्रति उदासीन हो जाती है, उसकी भाषा और भाव भी लुप्त हो जाते हैं। पिछले डेढ़ सौ बरस से हिन्दुस्तान भी इस सन्दर्भ में उदासीन हो रहा है। अपने देश में दुनिया के सर्वाधिक कुपोषित बच्चे पल रहे हैं। फुटबाल तो खेला ही नहीं जा रहा, हाकी पिछड़ चुकी है। समस्या सिर्फ फास्ट फूड के नक़ल की नहीं है, गौ-पूज्य देश भैंस के दूध की चाय पी रहा है। आयातित दूध-पावडर और यूरिया निर्मित मावे की मिठाई खा रहा है। 
                                                             O- अंबरीश कुमार
साभार : http://www.hastakshep.com/intervention-hastakshep/interview/2015/01/09/%E0%A4%97%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%A7%E0%A5%80%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%A6%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A5%8B%E0%A4%82-%E0%A4%95%E0%A5%8B-%E0%A4%97%E0%A4%BE%E0%A4%82%E0%A4%A7%E0%A5%80%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%A6?utm_source=feedburner&utm_medium=feed&utm_campaign=Feed%3A+Hastakshepcom+%28Hastakshep.com%29

मुनाफे का खेल-हराम की कमाई अब धर्म है

मुनाफे का खेल-हराम की कमाई अब धर्म है

राजनीतिक मोर्चाबंदी नहीं, अब जरूरत है आम जनता के मोर्चे की!

गांधी की वापसी के इतिहास के मौके पर राजघाट पर अनशन, लेकिन गोडसे समय के खिलाफ फिर लवण सत्याग्रह की मस्त गरज आहे

अबे चैतू, तू कथे जात है। देश मुआ जात है, तू जिंदा रहबे?

गांधी जिसे पागल दौड़ बताते रहे हैं, उनके अनुयायी उस पागल दौड़ में शामिल हैं
ये तस्वीरें बताती हैं कि हम किस भारत का कायाकल्प करने में लगे हैं। गांधी जिसे पागल दौड़ बताते रहे हैं, उनके अनुयायी उस पागल दौड़ में शामिल हैं। वही पागल दौड़ अनंत विकास गाथा है। वही पागल दौड़ कटकटले अंधकार है। वही पागल दौड़ हिंदुत्व है जो दरअसल हिंदू साम्राज्यवाद है। नस्ली भेदभाव है। अमेरिकी जायनी जनसंहार राजसूय है और सारा देश महाभारत है। धर्म की बात गांधी भी करते थे। रामराज्य की बात भी करते थे गांधी। जब नाथूराम गोडसे ने गोली दाग दी तो बापू के आखिरी शब्द थेः हे राम!
उन्हीं राम के नाम यह पागल दौड़ है।
सेवाग्राम में इस पागल दौड़ चेतावनी के मुखातिब हुए हम, मैं, रविजी और निसार अली। हम जैसे बीचोंबीच हबीब तनवीर के आगरा बाजार में नाचा गम्मक खेल रहे हों इस सीमेंट के जंगल के कटकटले अंधकार में।
नागपुर से ट्रेन से लौट रहे थे तो टीटीई के भेष में रामभक्त एक देखा जो नागपुर से लेकर रायगढ़ तक जय श्री राम कहते-कहते रायपुर से खाली हुआ जात बैलगाड़ी के सफर में रात को कड़ाके की सर्दी के एवज में बिना रिजर्वेशन घुस आये मुसाफिरों से जय श्री राम कह-कहकर पचास से दो सौ रुपये वसूलता रहा। यही राजकाज है। संत समागम भी यही है।
गांधी बिना श्रम संपत्ति के खिलाफ थे। बिना श्रम भोजन उनके लिए हराम था। अब रामजादा हुआ हो या नहीं, देश गांधी के सिद्धांत के मुताबिक हरामजादा हुआ जात है। डायन हुई मंहगाई, सैंया हमार कमात भौत है, डायन ससुरी खाय जात है।
आंकड़ों की महिमा भारी मंहगाई भी जीरो दीख्ये अब, लेकिन जनता फिर भी मारी-मारी। सब ससुरे मुनाफा का खेल, हराम की कमाई अब धर्म है । हराम की कमाई अब अर्थ व्यवस्था है।
संत विनोबा जो सूत कातते थे, उसके मेहनताना बतौर उन्हें तीन आना मिलता था, उसी का खाते थे और गांव वालों से खुद को भंगी कहते थे। नदी में बाढ़ आयी तो पाखाना परिष्कार करने गांव जा नहीं पाये तो पवनार पार से हांक लगायी, गांववालों, नदी में बाढ़ है और आज तुम्हारा भंगी नहीं आयेगा।
अबे चैतू, तू कथे जात है। देश मुआ जात है, तू जिंदा रहबे?
गौर तलब है कि राजघाट पर आज से तीन दिनों के लिए गांधीवादी और सर्वोदयी कार्यकर्ताओं का अनशन है गांधी के नासमझ हत्यारे नाथूराम गोडसे के महिमामंडन के खिलाफ।
सेवाग्राम में वहां के प्रभारी जयवंत मठकर ने हमें उस कार्यक्रम का आमंत्रण पत्र दिखाया था 6 जनवरी को जब हम छत्तीसगढ़ के नाचा गम्मक कलाकार निसार अली और नागपुर के रंगकर्मी व युवा कारोबारी रविजी के साथ वर्धा में दो दिवसीय सफदर हाशमी रंग मोहत्सव के उपरांत वहां पहुंचे।
 कल आज की खबरों में राजघाट पर गांधी की दक्षिण अफ्रीका से वापसी के सौ साल के मौके पर इतिहास में वापसी की कोई हलचल कहीं है नहीं और न राजघाट पर अनशन की खबर है। सर्वोदयी कार्यकर्ताओं ने याद करें कि बाबरी विध्वंस के बाद भी राजघाट पर अनशन किया था।
इस वापसी शताब्दी पर देश बेचने वालों का कार्निवाल लेकिन खूब जोरों पर है। गांधी के हत्यारे की मूर्ति गढ़ दी गयी है और नई दिल्ली में 30 जनवरी रोड के एकदम पास मंदिर मार्ग स्थित में उसमें प्राण प्रतिष्ठा भी कर दी जानी है, ऐसे में प्रथम स्वयंसेवक ने गांधी के दक्षिण अफ्रीका से भारत वापस लौटने के सौवें साल पर डाक टिकट भी जारी कर दिया है। जबकि मेरठ में संत समागम मध्ये गोडसे मंदिर बनने की पूरी तैयारी है। भूमि पूजन संपन्न है।
तेरह साल की उम्र में बापू के सान्निध्य में आयी कुसुम ताई पांडे जो अब तेरानब्वे साल की हैं और महाराष्ट्र में कम्युनिस्ट आंदोलन से जुड़ी अंबर चरखा से सूत कात रही युवा प्रभाताई ने एक स्वर से कहा कि नाथूराम गोडसे का मंदिर इस देश में नहीं बनना चाहिए।
कुसुमताई ने कहा कि अब फिर एक लवण सत्याग्रह की दरकार है पागल दौड़ के खिलाफ तो कुछ दूसरे कार्यकर्ताओं ने कहा कि उस नासमझ हत्यारे को माफ कर दिया बापू ने लेकिन यह देश उसे माफ नहीं कर सकता।
जयवंत मठकर ने जब उस बहुचर्चित गांधी के नाम नेताजी के पत्र की चर्चा की जिसमें नेताजी ने आजाद हिंद फौज के भारत में प्रवेश के लिए गांधीजी से इजाजत मांगी और उन्हें फादर आफ दि नेशन नाम से पहले संबोधित किया।
उनने याद दिलाया शांतिनिकतन में बापू के सान्निध्य कविगुरु रवींद्र की और कहा कि रवींद्र ने ही गांधी को महात्मा कहा। तो ढेरों बातें याद आयी और सेवाग्राम की सरजमीं पर उस माटी में खड़े होकर जहां खुल्ले आसमान के नीचे बापू की प्रार्थना सभा होती थी और जहां 1936 में बापू ने पीपल का पेड़ लगाया था, खुल्ला बाजार में धर्म के नाम, राम के नाम हमें चारों तरफ से दसों दिशाओं से बेदखल करती पागल दौड़ याद आयी और अचानक अहसास हुआ कि गांधी कोई कांग्रेस के नेता तो थे नहीं।
वे नेहरु के भी उतने ही नेता थे जितने नेताजी के, समाजवादियों के जितने उतने ही कम्युनिस्टों के।
सारी अस्मिताएं एकजुट थीं अस्मिताओं के आर-पार और यह जनता का मोर्चा था, जिसके नेता थे बापू।
अमेरिकी की स्वतंत्रता की लड़ाई, फ्रासीसी क्रांति से लेकर हाल में दक्षिण अफ्रीका की क्रांति और यहां तक कि अमेरिकी अश्वेत प्रथम राष्ट्रपति बाराक ओबामा के चुनाव में भी किसी विचारधारा, किसी अस्मिता या किसी राजनीति के बजाय निर्णायक था फिर वही सामाजिक और उत्पादक शक्तियों का संयुक्त मोर्चा।
क्या हम वह मोर्चा गढ़ नहीं सकते?
वही सामाजिक और उत्पादक शक्तियों का संयुक्त मोर्चा?
जनता का मोर्चा?
हमारे भीतर उस वक्त जैसे केदार जलप्रलय घमासान।
जैसे सारे के सारे पहाड़ दरकने लगे।
जैसे घाटियां यकबयक गायब होने लगीं।
जैसे सारे के सारे ग्लेशियर रेगिस्तान। जैसे भूकंप से जलथल एकाकार।
जैसे एडियोएक्टिव पोलोनियम जहर से हजार भोपाल गैस त्रासदियों के बीचोंबीच अकले हम महाभारत युद्ध के सारे जख्मों, सारे रक्तपात का बोझ ढोते हुए अश्वत्थामा।
हमने नई तालीम के बच्चों को टिफन खाते हुए, टिफिन साझा करते हुए गांधी की चर्चा करते सुना और दोपहर के भोजन से पहले सफाई करते बच्चे जब कहने लगे कि उन्हें मोदी नहीं, गांधी बनना है तो हमारे होश ठिकाने आये।
हमने गांधी को देखा नहीं है। न हम गांधी को समझे हैं और न उनके सत्य और सत्याग्रह को। हम जैसे नासमझ गांधीविरोधियों की रहने दें, जो गांधीवाद के झंडेवरदार हैं, पागल दौड़ की उनकी सियासत के मद्देनजर कहना सही होगा कि इस देश में गांधी को अब शायद ही कोई समझता हो।
हमने इरोम शर्मिला नाम की हमारी सबसे प्रिय, सबसे खूबसूरत एक लड़की के 14 साल का स्तायग्रह देखा है और आमरण अनशन मार्फते उनकी सत्यनिष्ठा देख रहे हैं। सत्ता के सैन्यतंत्र विरुद्ध लोकशाही की बहाली की इरोम की लड़ाई को समझें तो शायद हम गांधी को भी समझ सके हैं। गांधी के देश ने गांधी की सबसे महान अनुयायी में एक इरोम शर्मिला को भी भुला दिया गया। जबकि इरोम शर्मिला के संघर्ष की कहानी जबरदस्त नैतिक बल से भरी हुई है। इसके बावजूद इस संघर्ष में हिंसा की जगह नहीं है। इस कहानी में बलिदान है, सम्मान के साथ जीने के हक के लिए संघर्ष है। ये कहानी शुरू हुई थी सुदूर पूर्वोत्तर की एक छोटी सी झोपड़ी में इरोम आठ भाई-बहनों में सबसे छोटी हैं, जब इरोम का जन्म हुआ तब उनकी मां इरोम सखी नवजात बच्ची को अपना दूध पिलाने के काबिल नहीं रहीं। इरोम को गांव की कई महिलाओं ने अपना दूध पिला कर एक तरह से जीवन दान दिया था।
वर्धा में एक मजदूर है जिसकी दिहाड़ी का इंतजाम हम अब कर नाही सकत है। वह काफिले की मजदूरी करता है। उसकी संगत में है एक कुमार गौरव। लड़के बहुत होशियार हैं। उनन के साथ दंगल जंगल के मोर मोरनियां हैं, जिनकी वसंत बहार है वर्धा महात्मा गांधी हिंदी विश्वविद्यालय में, जहां हाशिमपुरा मलियाना नरसंहार का भंडाफोड़ करने वाले बहुनिंदित एक कुलपति विभूति नारायण राय ने नजीर हाट, बिरसा मुंडा हास्टल, भगत सिंह सुखदेव राजगुरु हास्टल, कामिल बुल्के अंतरराष्ट्रीय छात्रावास, बाबा नागार्जुन सराय, मुंशी प्रेमचंद मार्ग, हबीब तनवीर प्रेक्षागृह वगैरह-वगैरह से हिंदी का एक बेममिसाल गांव रचा है और हमारे कुछ पुरातन मित्र जो पगलैट किसम के रहे हैं, रघुवीर सहाय के चेले चपाटे भी हैं, वहां वे भी बसै हैं। वहां दो दिनों तक ऊधम काटने के बाद बचे खुचे जनमाध्यम भारतीय रंगमंच के बिखरे रंगकर्मियों में संवाद की पहल शुरु करने की एक पहल भी हो गयी ठैरी, जिसके बारे में सिलसिलेवार तरीके से बतायेंगे।
नाचा गम्मक को हबीब तनवीर को न जानने वाले न समझें, ऐसी बात नहीं है। नाचा गम्मक कलाकार निसार मियां इप्टा के सहयोग से छत्तीसगढ़ में एक रंगकर्मी मोर्चा बना चुके हैं और नागपुर जंकशन पर शैला हाशमी के राजधानी एक्सप्रेस के इंतजार में इस मोर्चे को हम राष्ट्रीय शक्ल देने के बारे में घंटों बतियाते रहे। वर्धा के छात्र छात्राओं शिक्षकों और वहां हाजिर नाजिर रंगकर्मियों के सौजन्य से एक पहल भी हमने रंग चौपाल के जरिये कर दी है।
हम गोरख पांडेय छात्रावास में लहूलुहान असंख्य गोरख पांडेय के मुखातिब थे कि रविजी अपनी कार लेकर सेवाग्राम हो आये। नागार्जुन सराय में हमने उन्हें धर दबोचा और दो दिन में हम मुक्म्ल छात्र अवतार में थे। अकेले ही हो आये, अभ भरिये जुर्माना। तो उनने जो जुर्माना भरा, बाकायदा सारथी बनकर ले गये हमें सेवाग्राम, जहां जाकर शोर मचाने के लिए मशहूर हो चुके हम हकबका गये।
पूछा हमने निसार भाई से, हां भाई चैतू, कथे ले आयो हो हमें, ई तो हमार घर लाग्यो है। जो घर पीछे छोड़ आयो, जो घर सीमेट के जंगल में बेइंतहा एक कब्र है, ससुरा वहीच घर इथे दीख गयो रे।
मन बेहद कच्चा कच्चा हो गयो रे भाया। 
                                         O- पलाश विश्वास
साभार : http://www.hastakshep.com/intervention-hastakshep/travelogue/2015/01/09/%E0%A4%AE%E0%A5%81%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%AB%E0%A5%87-%E0%A4%95%E0%A4%BE-%E0%A4%96%E0%A5%87%E0%A4%B2-%E0%A4%B9%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%AE-%E0%A4%95%E0%A5%80-%E0%A4%95%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%88?utm_source=feedburner&utm_medium=feed&utm_campaign=Feed%3A+Hastakshepcom+%28Hastakshep.com%29

भूमि अधिग्रहण अध्यादेश-लोकतंत्र और जनता के विरुद्ध सरकार और कारपोरेट की दुरभिसंधि

पूंजीवादी विकास का रास्ता भ्रष्टाचार से होकर गुजरता है
भारतीय लोकतंत्र को कारपोरेट घरानों ने हाईजेक कर लिया है
भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और पुनस्र्थापना कानून 2013 भाजपा के सुझावों को शामिल करके उसके समर्थन से संसद में पारित हुआ था। कानून को स्वीकृति देने वाली संसदीय समिति की अध्यक्ष सुमित्रा महाजन थीं जो वर्तमान लोकसभा की अध्यक्ष हैं। यह कानून जनवरी 2014 से अमल में आया। इस कानून में अधिग्रहण की जाने वाली जमीन के लिए किसानों को उचित मुआवजा देने और उनकी पूर्व अनुमति संबंधी प्रावधानों को पहले के 13 कानूनों पर एक साल के अंदर लागू करने की व्यवस्था भी की गई थी। उपनिवेशवादी दौर के 1894 के भूमि अधिग्रहण कानून की जगह यह कानून लाया गया था। 1991 में लागू की गई नई आर्थिक नीतियों के चलते किसानों-आदिवासियों की भारी तबाही, सामजिक तनाव और पर्यावरण विनाश के चलते दबाव में आई यूपीए सरकार ने यह कानून बनाया। इसके तहत भूमि अधिग्रहण यदि सरकार द्वारा होता है तो 70 प्रतिशत और कंपनियों द्वारा सीधे होता है तो 80 प्रतिशत लोगों की स्वीकृति अनिवार्य है। इसके साथ सामाजिक प्रभाव आकलन (एसआईए) का प्रावधान भी अनिवार्य बनाया गया है।
अध्यादेश में कानून की धारा 10 ए में संशोधन किया गया है कि पांच क्षेत्रों – औद्योगिक गलियारों, पीपीपी (सार्वजनिक निजी भागीदारी परियोजनाओं), ग्रामीण ढांचागत सुविधाओं, रक्षा उत्पादन और आवास निर्माण योजनाओं-के लिए किए जाने वाले भूमि अधिग्रहण में पूर्व अनुमति और एसआईए की बाध्यता नहीं होगी। इन क्षेत्रों के लिए बहुफसली सिंचित जमीन भी सीधे ली जा सकती है। सरकार ने यह अध्यादेश लाने का फैसला संसद का शीतकालीन सत्र समाप्त होने पर 29 दिसंबर को किया। राष्ट्रपति ने जल्दबाजी का कारण पूछा तो सरकार के तीन मंत्री उन्हें स्पष्टीकरण दे आए और राष्ट्रपति की मंजूरी मिल गई। इस कानून से किसानों-आदिवासियों की उनकी जमीन के अधिग्रहण की प्रक्रिया में जो भूमिका बनी थी, अध्यादेश ने उसे खत्म कर फिर से नौकरशाही और कारपोरेट घरानों को दे दिया है। इन संशोधनों के पक्ष में भाजपा नेता जो तर्क दे रहे हैं, वे कानून बनने के समय देने चाहिए थे। जाहिर है, अध्यादेश लाकर सरकार ने आम चुनाव में कारपोरेट घरानों के समर्थन का मोल चुकाया है।   
ऐसा माना जाता है कि कारपोरेट घरानों ने मनरेगा, भूमि अधिग्रहण कानून और खाद्यान्न सुरक्षा कानून जैसे कदमों से खफा हो मनमोहन सिंह-सोनिया गांधी की जगह नरेंद्र मोदी पर दांव लगाया था। मनमोहन सिंह शास्त्रीय ढंग से नवउदारवाद के रास्ते पर चलने वाले अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री थे। जबकि नरेंद्र मोदी अंधी छलांगें लगा रहे हैं। भाजपा का मनमोहन सिंह को कमजोर प्रधानमंत्री बताने का प्रचार निराधार था। हालांकि, चुनावी जीत में वह प्रचार काफी कारगर रहा। वे भारत में नवउदारवाद के जनक और प्रतिष्ठापक के बतौर सबसे मजबूत प्रधानमंत्री के रूप में याद किए जाएंगे । उन्होंने भारत की आर्थिक नीति और उनके लक्ष्य को संविधान की धुरी से उतार कर नवउदारवादी प्रतिष्ठानों – विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व व्यापार संगठन, विश्व आर्थिक मंच, विविध बहुराष्ट्रीय कंपनियों आदि – की धुरी पर प्रतिष्ठित कर दिया। वे पूरी समझदारी से मानते थे कि विकास का पूंजीवादी रास्ता ही ठीक है। हर्षद मेहता प्रकरण से लेकर भ्रष्टाचार के अद्यतन घोटालों तक उनकी पेशानी पर शिकन नहीं आती थी तो इसीलिए कि वे ईमानदारी से मानते थे कि पूंजीवादी विकास का रास्ता भ्रष्टाचार से होकर गुजरता है। नरेंद्र मोदी मनमोहन सिंह का ही विस्तार हैं इसलिए उनकी सरकार में वही सब नीतियां और कारगुजारियां हैं। लेकिन दोनों में फर्क भी है। मनमोहन सिंह न सत्ता के भूखे थे, न नवउदारवादी उपभोक्तावाद की चकाचैंध से आक्रांत। नरेंद्र मोदी के अति उत्साह के पीछे ये दो कारक सर्वप्रथम हैं।
यह संविधान की मूल भावना में है और 1987 में सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा है कि अध्यादेश आपात अथवा असामान्य स्थिति में ही लाना चाहिए। ध्यान किया जा सकता है कि अध्यादेशों का सिलसिला मनमोहन सिंह के वित्तमंत्री काल में ही शुरू हो गया था। वाजपेयी सरकार ने उसे तेजी से आगे बढ़ाया। यूपीए सरकार भी अध्यादेशों की सरकार थी। लेकिन सात महीना अवधि की मौजूदा सरकार ने संसद के सत्र के समानांतर और समाप्ति पर नौ अध्यादेश लाकर संसदीय लोकतंत्र को अभी तक का सबसे तेज झटका दिया है। यह कहना कि अध्यादेशों से संसदीय लोकतंत्र को आघात पहुंचता है, जैसा कि कुछ अंग्रेजी टिप्पणीकारों ने भी कहा है, महज तकनीकी आलोचना है। सवाल है कि पहले की या मौजूदा सरकार ऐसा क्यों करती हैं? इसका उत्तर यही हो सकता है कि सरकारें यह कारपोरेट पूंजीवाद के वैश्विक प्रतिष्ठानों, बहुराष्ट्रीय कंपनियों, कारपोरेट घरानों के हित में करती हैं।
नवउदारवादी दौर में चुनाव अत्यंत मंहगे हो गए हैं। खबरों के अनुसार पिछले आम चुनाव में भाजपा ने बीस से पच्चीस हजार करोड़ और कांग्रेस ने दस से पंद्रह हजार करोड़ रुपया खर्च किया। यह धन कारपोरेट घरानों से आता है। प्रधानमंत्री बनने के दावेदार नेता पूंजीपतियों के संगठनों/सम्मेलनों में शामिल होकर खुले आम कहते हैं, हमें जितवाइये हम आपका काम करेंगे। भारतीय लोकतंत्र को कारपोरेट घरानों ने हाईजेक कर लिया है। भूमि अधिग्रहण कानून लागू होने के चार महीने बाद नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्रित्व में बनी भाजपा सरकार ने उसे बदलने की मंशा जाहिर कर दी थी। तीस प्रतिशत समर्थन को वह मतदाताओं की नहीं, कारपोरेट घरानों की देन मानती है। ऐसे में बड़े बिजनेस घरानों का हित सरकार के लिए सर्वोपरि हो जाता है। चुनाव में कारपोरेट घरानों का धन नहीं रुकेगा तो उनके हित में लाए जाने वाले अध्यादेश भी नहीं रुकेंगे।
इस अध्यादेश से जल, जंगल, जमीन का पहले से उलझा मसला और जटिल होगा। मंहगा मुआवजा मिल जाने से किसानों-आदिवासियों का ‘मोक्ष’ नहीं हो जाता है। ज्यादातर किसान छोटी जोत वाले होते हैं। जमीन अधिग्रहण के चलते उनमें ज्यादातर न घर के रहते हैं न घाट के। मोटा मुआवजा अक्सर फिजूलखर्ची और व्यसन में जल्दी ही खत्म हो जाता है। बहुत कम लोग मुआवजे का समझदारी से दूरगामी उपयोग कर पाते हैं। गांव की जमीन पर निर्भर रहने वाली दलित एवं कारीगर जातियों को 1894 के भूमि अधिग्रहण कानून के समय से ही कोई मुआवजा राशि, आवासीय प्लाॅट या नौकरी नहीं मिलती है। ऐसे में बिना पूर्व अनुमति और सामाजिक प्रभाव आकलन के जमीन अधिग्रहण से सामाजिक विग्रह तो बढ़ेगा ही, नक्सली हिंसा में इजाफा हो सकता है।
भूमि अधिग्रहण अध्यादेश का एक महत्वपूर्ण सबक यह है कि कुछ भले लोगों का नवउदारवादी दायरे में सरकार के सलाहकार बन कर किसानों-आदिवासियों-मजदूरों को कुछ राहत दिलवाने का गैर-राजनीतिक प्रयास स्थायी नहीं हो सकता। उन्हें समझना होगा कि जनता की जिस जागरूकता और सक्रियता की वे बात वे अपने एनजीओ कर्म के तहत करते हैं, उसका बिना राजनीतिक सक्रियता के कोई अर्थ नहीं है।
कांग्रेस समेत ज्यादातर पार्टियों ने इस अध्यादेश का विरोध किया है। कई जन संगठन, किसान संगठन और महत्वपूर्ण लोग भी विरोध में हैं। जस्टिस राजेंद्र सच्चर ने अपने बयानों और लेखों में कड़ी आलोचना दर्ज की है। हो सकता है भाजपा का किसान प्रकोष्ठ भी विरोध करे। उससे संबद्ध मजदूर संगठन भारतीय मजदूर संघ (बीएमएस) ने सरकार के खिलाफ हाल में हुई कोल माइंस वर्कर्स यूनियन की सांकेतिक हड़ताल में अन्य मजदूर संगठनों के साथ मिल कर हिस्सा लिया है। यह विरोध तभी सार्थक है जब ये सब पार्टियां और संगठन नवउदारवादी आर्थिक नीतियों का भी विरोध करें। यानी विकास के पूंजीवादी मॉडल का विरोध। विरोध के साथ कुछ फौरी कदम भी उठाने चाहिए। राजनीतिक पार्टियों को भूमि अधिग्रहण कानून की मजबूती के साथ, जैसा कि सोशलिस्ट पार्टी की मांग है, एक भूमि उपयोग आयोग (लैंड यूज कमीशन ) बनाने की पहल करनी चाहिए। उसमें किसानों और आदिवासियों का समुचित प्रतिनिधित्व होना चाहिए। भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में किसान आंदोलन की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। उसके कई महत्वपूर्ण विचारक ओर नेता रहे हैं। आजादी के बाद चौधरी चरण सिंह से लेकर नंजुदास्वामी व किशन पटनायक तक खेती-किसानी के स्वरूप व समस्याओं पर गहराई से विचार करने वाले लोग हुए हैं। इस विरासत को विकास के विमर्श का हिस्सा बनाना चाहिए।
प्रेम सिंह

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समाजवादी चिंतक डॉ. प्रेम सिंह सोशलिस्ट पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव हैं। वे दिल्ली विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर हैं। 
साभार : http://www.hastakshep.com/columnist/%E0%A4%B8%E0%A4%AE%E0%A4%AF-%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%A6-columnist/2015/01/09/%E0%A4%AD%E0%A5%82%E0%A4%AE%E0%A4%BF-%E0%A4%85%E0%A4%A7%E0%A4%BF%E0%A4%97%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%B9%E0%A4%A3-%E0%A4%85%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%A6%E0%A5%87%E0%A4%B6-%E0%A4%B2?utm_source=feedburner&utm_medium=feed&utm_campaign=Feed%3A+Hastakshepcom+%28Hastakshep.com%29