Friday, 17 October 2014

"हैदर" यानी कश्मीरियत की त्रासदी

जगदीश्वर चतुर्वेदी

     ”हैदर” फिल्म पर बातें करते समय दो चीजें मन में उठ रही हैं। पहली बात यह कि कश्मीर के बारे में मीडिया में नियोजित हिन्दुत्ववादी प्रचार अभियान ने आम जनता में एक खास किस्म का स्टीरियोटाइप या अंधविचार बना दिया है। कश्मीर के बारे में सही जानकारी के अभाव में मीडिया का समूचा परिवेश हिन्दुत्ववादी कु-सूचनाओं और कु-धारणाओं से घिरा हुआ है। ऐसे में कश्मीर की थीम पर रची गयी किसी भी रचना का आस्वाद सामान्य फिल्म की तरह नहीं हो सकता। किसी भी फिल्म को सामान्य दर्शक मिलें तब ही उसके असर का सही फैसला किया जा सकता है। दूसरी बात यह कि हिन्दी में फिल्म समीक्षकों का एक समूह है जो फिल्म के नियमों और ज्ञानशास्त्र से रहित होकर आधिकारिकतौर पर फिल्म समीक्षा लिखता रहता है। ये दोनों ही स्थितियां इस फिल्म को विश्लेषित करने में बड़ी बाधा हैं। फिल्म समीक्षा कहानी या अंतर्वस्तु समीक्षा नहीं है।
हैदरफिल्म का समूचा फॉरमेट त्रासदी केन्द्रित है। यह कश्मीरियों की अनखुली और अनसुलझी कहानी है। कश्मीर की समस्या के अनेक पक्ष हैं।फिल्ममेकर ने इसमें त्रासदी को चुना है।यहां राजनीतिक पहलु तकरीबन गायब हैं। इस फिल्म में राजनीति आटे में नमक की तरह मिली हुई है। यहां तक कि भारत की लोकतांत्रिक प्रक्रिया भी इसके फॉरमेट में हाशिए पर है। मूल समस्या है कश्मीर जनता की आतंकी त्रासदी की। काफी अर्सा पहले कश्मीर के आतंकी पहलु पर गोविन्द निहलानी की फिल्म ‘द्रोहकाल’ आई थी, वहां आतंकी हिंसाचार को  कलात्मक ढंग से चित्रित किया गया था, जबकि ”हैदर” में आतंकी हिंसाजनित त्रासदी का चित्रण है। इस अर्थ में इस फिल्म को ”द्रोहकाल” की अगली कड़ी के रूप में भी रखा जा सकता है।
     ”हैदर” फिल्म में मूलपाठ त्रासदी है, लेकिन अनेक उप-पाठ भी हैं, जो अधूरे हैं। इस फिल्म की खूबी है कि इसमें राष्ट्रवाद कहीं पर नहीं है। साथ ही राजनीतिक संवाद बहुत कम है। इस अर्थ में यह ”द्रोहकाल” से विकसित नजरिए को व्यक्त करने वाली फिल्म है। हिन्दी में कश्मीर पर राजनीतिक फिल्म बने और उसमें राष्ट्रवाद न हो यह हो नहीं सकता, हिन्दी में कश्मीर और आतंकी थीम पर बनी फिल्मों में राष्ट्रवाद और उसके भड़काऊ संवाद खूब आते रहे हैं। लेकिन ”हैदर” इस मामले में अपवाद है। साथ ही मुसलमानों और कश्मीर को लेकर सचेत रूप से मीडिया में प्रचलित स्टीरियोटाइप को भी कलात्मक चुनौती दी गयी है। मसलन, इस फिल्म में मुसलमान कहीं नजर नहीं आते, कश्मीरी नजर आते। मस्जिद-नवाज-मौलवी आदि उनसे जुड़ा समूचा मीडिया स्टीरियोटाइप एकसिरे से गायब है। फिल्ममेकर सचेत रूप में कश्मीरियत को चित्रित करने में सफल रहा है। इस अर्थ में यह फिल्म कश्मीर की समस्या में पिस रहे कश्मीरियों की त्रासदी को सामने लाती है और इस समस्या के हिन्दू-मुसलमान के  नाम पर चल रहे हिन्दुत्ववादी मीडिया प्रचार का कलात्मक निषेध करती है।
      इसके अलावा इस फिल्म में बड़े ही संतुलन के साथ सेना और आतंकियों के मानवाधिकार हनन के रूपों के खिलाफ प्रतिवादी भावों और संवेदनाओं को उभारा गया है और उनको मानवाधिकार के फ्रेमवर्क में रखकर पेश किया गया है। त्रासदी यहां इवेंट की बजाय प्रक्रिया के रूप में चित्रित हुई है। त्रासदी जब प्रक्रिया के रूप में आती है तो वह मानवीय भावों-सरोकारों से जोड़ती है, स्मृति में स्पेस पैदा करती है। देश से जोड़ती है। इवेंट में ये संभावनाएं खत्म हो जाती हैं। त्रासदी केन्द्रित होने के कारण समूची फिल्म में दर्शकों की सहानुभूति पीड़ितों के साथ है। वे इस प्रक्रिया में राजनीतिक पूर्वाग्रहों में बहते नहीं हैं, बल्कि फिल्म के अनेक अंश ऐसे हैं जो दर्शक को कश्मीर संबंधी पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर सोचने में मदद करते हैं। यह सच है कि कश्मीर में आतंकी हमलों और सेना की ज्यादती के कारण हजारों औरतें विधवा हुई हैं, हजारों बच्चे अनाथ हुए हैं, उनके कष्टों-पीड़ाओं को हम लोग बहुत कम जानते हैं। कश्मीर भारत का अंग है और कश्मीर में घट रही हिंसा से इस देश को सकारात्मक तौर पर परिचित कराने में हैदरजैसी अनेक फिल्मों की जरूरत है।
      ”हैदर” फिल्म की खूबी है कि इसमें आतंकी त्रासदी को महज भावुक नहीं रहने दिया। त्रासदी में विवेक पर बल देकर फिल्म मेकर ने त्रासदी को भावुकता से अलग कर दिया। त्रासदी की इमेजों का हम जब भी आस्वाद लेते हैं अभिनेता बार-बार अपने एक्शन से विवेकपूर्ण भूमिका निभाते हैं। प्रत्येक पात्र लोकतांत्रिक ढंग से खुला है, वह कोई काम पर्दे के पीछे से नहीं करता, फिल्म मेकर दर्शक को कयास लगाने का मौका ही नहीं देता। सब कुछ दर्शक के सामने होता है। प्यार, चुम्बन, शैतानियां, मुखबरी, पक्षधरता आदि सबको सीधे दर्शकों के सामने खोलकर रखा गया है इसके चलते इस फिल्म में अंतराल में या प्रच्छन्न ढंग से भावों को मेनीपुलेट करने की कोई संभावना नहीं है।
      कश्मीर की त्रासदी ऐतिहासिक पीड़ा है। इसे नकली तर्कों के आधार पर न तो समझा जा सकता है और न पेश किया जा सकता है। यह सामान्य त्रासदी नहीं है। फिल्ममेकर ने इस ऐतिहासिक त्रासदी को फिल्म सौंदर्य के जरिए उद्घाटित किया है। यहां कलात्मक-सौंदर्यात्मक भाषा का भरपूर इस्तेमाल किया है। इस भाषा के जरिए दर्शक के आस्वाद को फिल्ममेकर कॉमनसेंस या स्टीरियोटाइप के धरातल से ऊपर उठाकर ले जाता है। कश्मीर की समस्या को कश्मीरियत की त्रासदी के रूप में चित्रित करना स्वयं में मुश्किल काम है। कश्मीरियत को तो हमारा मीडिया और जनमानस एक सिरे से भूल चुका है, ऐसे में फिल्म मेकर एक काम यह करता है कि वह कश्मीरियत को अस्मिता का आधार बनाता है, वह कश्मीर की समस्या को हिन्दू-मुसलिम समस्या या धर्म के आधार बने भारत-पाक विभाजन का निषेध भी करता है। कश्मीर की त्रासदी को चित्रित करने का मकसद भविष्य में होने वाली त्रासदी को रोकना है। फिल्ममेकर संदेश देता है कि मानवाधिकार सबसे मूल्यवान हैं और उनके हनन का अर्थ है अनिवार्यतः त्रासदी।
     यह फिल्म कश्मीर के नकली-विशेषज्ञों की भी प्रकारान्तर से पोल खोलती है। कश्मीर के मसले पर ज्योंही बातें होती हैं हमारे बीच में अचानक नकली कश्मीर विशेषज्ञ आ जा जाते हैं और कश्मीर पर वे नकली तर्कजाल से सारा माहौल घेर लेते हैं। इस तर्कजाल को वे तथ्य के नाम पर घेरना आरंभ करते हैं। कलात्मक अभिव्यक्ति में सत्य-तथ्य दोनों महत्वपूर्ण होते हैं और इन दोनों से भी ज्यादा महत्वपूर्ण है सर्जनात्मक संवेदनाएं। सर्जनात्मक संवेदनाओं के जरिए ”हैदर” में कश्मीरियों की देशभक्ति पुख्ता रूप में सामने आई है। साथ ही कश्मीरी नागरिक की अनुभूतियां, आकांक्षाएं और त्रासदी भी सामने आई हैं। यह फिल्म संदेश देती है कि यह अस्मिता की त्रासदी का दौर भी है। कलात्मक त्रासदी को महसूस करने की चीज है और यह काम फिल्म ने बड़ी सफलता के साथ किया है।
     ”हैदर” फिल्म में कश्मीरियत को धर्मनिरपेक्ष शांतिमय संस्कृति के रूप में पेश किया गया है। साथ त्रासदी के प्रति आलोचनात्मक नजरिए को सम्प्रेषित करने में फिल्ममेकर सफल रहा है। कश्मीर की त्रासदी अन्य के बहाने से पेश नहीं की गयी है बल्कि सीधे पेश की गयी है। फिल्म में अतीत में लौटने वाले क्षण बहुत कम हैं। सारी फिल्म सीधे वर्तमानकाल में चलती है और भविष्य की ओर सोचने के लिए मजबूर करती है। अस्मिता के कई आयाम हैं मसलन्, प्रतिस्पर्धा, हिंसा, बदला, बदलाव, राष्ट्रीयता, आतंकवाद आदि इनमें से ”हैदर’ का जोर राष्ट्रीयता, बदलाव और शांति पर है।
साभार :http://www.hastakshep.com/hindi-news/film-tv/2014/10/17/%E0%A4%B9%E0%A5%88%E0%A4%A6%E0%A4%B0-%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A5%80-%E0%A4%95%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A5%80%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%AF%E0%A4%A4-%E0%A4%95%E0%A5%80-%E0%A4%A4

मोदी जी सारा माल-पानी पूंजीपतियों को और जनता के साथ बस हवा-बाज़ी

प्रधानमंत्री मोदी के नाम एक चिठ्ठी

प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी,
   बीती 10 तारीख मैं अपने घरेलू राज्य मध्यप्रदेश पहुंचा। लंबे सफर की थकान थी, तबीयत भी कुछ नासाज़ थी; लेकिन जैसे ही अख़बार हाथों में लिया, शरीर में एक नई ऊर्जा का संचार हुआ। ये शायद कुछ-कुछ आपके उन भाषणों को सुनने जैसा ही था, जिन्हें सुनकर सुनने वालों के अंदर एक नया जोश भर जाता है। उन भाषणों को सुनने ना जाने कितने ही कामगार-मजदूर आते हैं जिन्होंने अच्छे दिनों की आस में आपको प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचाया है।
Modi Ambani Adani,Modi, Ambani, Adani पहले पन्ने पर ही बड़े-बड़े अक्षरों में आपके श्रीमुख से निकले शब्दों को जगह मिली हुई थी “भारत को सिर्फ़ बाज़ार ना समझें: मोदी“। मौका था हाल ही में संपन्न हुए वैश्विक निवेश सम्मेलन (इंदौर) का, जिसमें आप पधारे हुए थे। आपके अनुज मुख्यमंत्री श्री शिवराज सिंह चौहान भी मौजूद थे और साथ ही एक पूरी टोली थी पूंजीपति-ठेकेदारों की। इस टोली में इस देश के पहले नम्बर के अमीर पूंजीपति मुकेश अंबानी से लेकर हाल ही में दंसवे नम्बर पर पहुंचे गौतम अडानी भी थे। आपके सामने इन सभी ने मध्यप्रदेश में पूंजी-निवेश के बड़े-बड़े वायदे किये। मुख्यमंत्री जी ने भी उन सभी को आश्वासन दिया कि “खुलकर निवेश करें, परिश्रम व पूंजी बेकार नहीं जाने दूंगा: शिवराज”। आपने भी फिर से सवा सौ करोड़ देशवासियों का जिक्र करते हुए पूंजीमालिकों को याद दिला दिया कि “भारत को सिर्फ़ बाज़ार न समझें व यहां के लोगों की क्रय-शक्ति यानी कि खरीदने का सामर्थ्य बढ़ाये बिना आप लोगों का सपना पूरा नहीं हो पाएगा”। बात तो बहुत बढ़िया कही आपने।
    वैसे आपका इस कार्यक्रम में इन पूंजीपतियों के बीच होना व आपकी उपस्थिति में मुख्यमंत्री के द्वारा उन्हें दिये गये तमाम आश्वासन यही सुझाते हैं कि आप भी विकास के उसी माडल पर विश्वास करते हैं जिसके मुताबिक पूंजी के बिना विकास असंभव है क्यूंकि पूंजी के बिना रोजगार पैदा नहीं हो सकता। सीधे शब्दों में कहें तो आप मानते हैं कि पूंजी ही श्रम को जन्म देती है। और पूंजी तो है पूंजीपतियों के पास, इसीलिये विकास का रास्ता भी यही दिखलायेंगे व विकास इन्हीं की शर्तों पर होगा।
हालांकि मैं विकास के इस माडल से सहमत नहीं हूं, क्यूंकि मेरा मानना है कि पूंजी श्रम को नहीं बनाती बल्कि ये इंसानी श्रम ही है जो अपने अलग-अलग रूपों में पूंजी पैदा करता है। इसलिये विकास का माडल श्रमिकों व कामगारों को केन्द्र में रखकर उनकी भागीदारी से तैयार किया जाना चाहिये नाकि पूंजीपतियों के। लेकिन अख़बार में आपकी कही बातें पढ़कर एक बारगी तो मुझे लगने लगा कि मैं ही गलत सोच रखता हूं और अब तो श्रमिकों के अच्छे दिन आ गये हैं और शुरुआत मध्य-प्रदेश से हो ही गई है।
    लेकिन जैसे ही मैंने आगे की खबरें पढ़ने के लिये अख़बार के पन्नें पलटे, श्रमिकों के लिये अच्छे दिनों का सपना टूटता सा लगा। खबर ही कुछ ऐसी थी। मेरे घर के पास ही कुछ कोयला खदानें हैं। उन खदानों में काम पर लगे ठेका-श्रमिकों से जुड़ी एक खबर छ्पी थी। “मजदूरी ना मिलने से परेशान मजदूरों ने किया प्रदर्शन”। ये मजदूर-कामगार पिछले 4 महिनों से तनख्वाह ना मिलने के चलते सड़कों पर उतरे हुए थे। ना ठेकेदार उनकी बात सुन रहा था, ना कालरी प्रबंधन और ना ही स्थानीय प्रशासन। लगता है शिवराज जी सिर्फ़ पूंजीपतियों के परिश्रम को ही बचाने की बात कर रहे थे। मुझे लगा कहां मोदी जी क्रय-शक्ति बढ़ाने की बात कर रहे हैं और कहां इन मजदूरों को वेतन ही नहीं नसीब हो रहा। ना जाने कितने लोगों ने आपके कहने पर बैंकों में खाते खुलवाये होंगे, पर उन खातों में डालें क्या सवाल तो यही है।
      मुझे असली झटका तो अगले दिन के अख़बार की एक खबर पढ़कर लगा जिसकी हेडलाईन थी “व्यापारियों, कारखाना-मालिकों को परेशान नहीं कर पायेंगे अब लेबर इंस्पेक्टर”। जो बात इस खबर व उससे जुड़ी मध्यप्रदेश सरकार के राजपत्र को पढ़कर मेरी समझ में आई कि मध्य-प्रदेश सरकार ने एक नई स्कीम शुरु की है – वालेंटरी कम्प्लायंस स्कीम (स्व-प्रमाणीकरण योजना ); जिसके तहत श्रम कानूनों से जुड़े 16 अधिनियमों, जिसमें वेतन भुगतान अधिनियम, न्यूनतम वेतन अधिनियम भी शामिल हैं, से जुड़े मामलों में श्रम विभाग के इंस्पेक्टर कारखानों की जांच अब पहले की तरह कभी भी और बिना सूचना दिये नहीं कर पायेंगे। जो कारखाना मालिक इस स्कीम से जुड़ेंगे उनसे अपेक्षा होगी कि वो अपने नियोजनों मे तमाम श्रम कानूनों का स्वेच्छा से पालन करेंगे। साथ ही उनके कारखानों व नियोजनों में अब सिर्फ़ 5 सालों में एक बार ही जांच की जा सकेगी और उसके लिये भी मालिकों को पहले ही सूचना दे दी जायेगी। इसके अलावा और भी बहुत कुछ था राजपत्र में जिसे पढ़कर लगा कि आने वाले दिन श्रमिकों के लिये और कुछ भी हों अच्छे तो नहीं ही जान पड़ते।
     वैसे ये बात भी सही है कि श्रम-विभाग अपनी जिम्मेदारी निभाने में पूरी तरह विफल रहा है- लेकिन इसका यह मतलब तो नहीं कि ऐसी स्कीमें बनाकर सरकारें कामगारों के अधिकार मालिकों की इच्छा के भरोसे छोड़ दें। साफ़ जाहिर है कि ऐसी तमाम स्कीमें सरकारें निवेशकों को लुभाने के लिये ही निकाल रही हैं। अब निवेशक तो वहीं पैसा लगायेंगे ना जहां उनको ज्यादा फ़ायदा हो। और फायदा पूंजीपतियों को तभी ज्यादा होगा जब कामगारों के अधिकार कमतर होंगे।
     मोदी जी, आप अपने भाषणों में अकसर पानी से आधा भरा, आधा खाली गिलास दिखाकर कहते हैं कि “कोई कहता है कि ये गिलास आधा भरा है तो कोई कहता है आधा खाली – लेकिन मैं एक बहुत आशावादी व्यक्ति हूं, क्यूंकि मैं कहता हूं कि आधा गिलास पानी से भरा है और आधा हवा से”। ये बात सुनने में तो बहुत अच्छी लगती है, लेकिन अगर श्रमिक इसे हकीकत से जोड़कर देखते होंगे तो शायद सोचते होंगे कि सारा माल-पानी तो मोदी जी ने पूंजीपतियों को दे दिया और हमारे साथ तो वो बस हवा-बाज़ी कर रहे हैं।
साभार : http://www.hastakshep.com/intervention-hastakshep/agenda/2014/10/16/modi-global-     investment-conference 
आईआईटी कानपुर से मैकेनिकल इंजीनियरिंग में PhD विवेक मेहता स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।
आईआईटी कानपुर से मैकेनिकल इंजीनियरिंग में PhD विवेक मेहता स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।
आपका,
विवेक
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भारत को सिर्फ़ बाज़ार ना समझें: मोदी,
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Monday, 13 October 2014

भारत में एनजीओ की सक्रियता और अमेरिका-पोषित नोबेल का नाता 

अभिरंजन कुमार

अमेरिका और अन्य प्रमुख पश्चिमी देशों को हम जितना गालियां दे लें, लेकिन उनके विज़न की दाद देनी पड़ेगी। वे बीस साल, पचास साल, सौ साल आगे की सोचकर काम करते हैं। हम लोग चार दिन आगे नहीं सोच पाते हैं। भारत जैसे मुल्क आज भी उनके हाथों के खिलौने भर हैं। हम सब रंगमंच की वो कठपुतलियां हैं, जिनकी डोर अमेरिका जैसे प्रभावशाली मुल्कों के हाथों में हैं।
मैंने कल ही कहा था कि कैलाश सत्यार्थी को सलाम है और उन्हें नोबेल पुरस्कार दिया जाना ख़ुशी की बात है, इसलिए अब मैं जो कहने जा रहा हूं, उसे सत्यार्थी के विरोध या द्वेष-ईर्ष्या आदि से जोड़कर न देखें। मैं नोबेल पुरस्कार की टाइमिंग देख रहा हूं। मैं यह देख रहा हूं कि ऐसे वक़्त में जब भारत भर में ज़्यादातर NGOs को लेकर तमाम सवालात उठ रहे हैं, उन्हें हो रही विदेशी फंडिंग और उसके पीछे की मंशा पर चिंता जताई जा रही है, भारत के एक NGO संचालक को नोबेल मिला है।
क्या अजीब इत्तेफ़ाक है कि भारत में पिछले तीन-चार साल में NGOs का ज़बर्दस्त उभार देखा जा रहा है। पहले NGOs ने रातों-रात कुछ नए हीरोज़ गढ़कर भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ एक ऐसा आंदोलन खड़ा कर दिया, जिसका एक-एक सीन किसी फिल्म के स्क्रीन-प्ले की तरह पहले से लिखा हुआ जान पड़ता था। कैसी टोपी होगी, कैसे कपड़े होंगे, किन-किन प्रतीकों का इस्तेमाल होगा, कौन-कौन भागीदार होंगे, कौन-कौन टार्गेट होंगे, क्या-क्या ड्रामे होंगे, मीडिया को कैसे खींचना है, युवाओं को कैसे लुभाना है, आलोचकों और तटस्थ समीक्षकों पर कैसे हमला करना है- सब स्क्रिप्टेड था।
ऐसा लग रहा था जैसे एक-एक दृश्य पर दुनिया के बड़े-बड़े दिमागों और इवेंट मैनेजरों ने मंथन किया है। बिल्कुल मिलते-जुलते नज़ारे दुनिया के कुछ अन्य देशों में बिल्कुल ताज़ा-ताज़ा दिखाई दिये थे, जिससे लगा कि हो न हो, इन सारे इवेंट्स की प्लानिंग और फंडिंग करने वाले लोग कॉमन हैं। उस वक़्त ऐसा माहौल बना दिया गया था कि अगर आप आंदोलन से जुड़े किसी व्यक्ति की निष्ठा पर सवाल उठाते या यह कहते कि एक कानून से किसी जनम भ्रष्टाचार ख़त्म नहीं हो सकता, तो फौरन आप चोर, भ्रष्ट और देशद्रोही करार दिये जाते।
मेरे जैसे लोग कन्फ्यूज़ हो गए थे कि अगर इस देश में इतने सारे ईमानदार लोग हैं, तो फिर बेईमानी और भ्रष्टाचार है कैसे? फिर तो भ्रष्ट लोगों को ईमानदारी मिटाने के लिए आंदोलन करना चाहिए, न कि ईमानदार लोगों को भ्रष्टाचार मिटाने के लिए। उन दिनों भ्रष्ट लोग भी टोपी पहनकर ईमानदारी पर भाषण दे रहे थे, भ्रष्टाचार जैसे गंभीर सवाल पर दूध-पीते बच्चों की फोटो खिंचाई जा रही थी और छुट्टी के दिन पिकनिक मनाकर पूरा का पूरा परिवार क्रांतिकारी कहलाने लगता था।
इस घटना के बाद हमने देखा कि यह देश अचानक ही स्त्री-अधिकारों के लिए जाग उठा। रेव-पार्टियों का आयोजन करने और उसमें हिस्सा लेने वाली पीढ़ी, तमाम किस्म के नॉनवेज़ चुटकुलों, पोर्न लिटरेचर और फिल्मों के उपभोक्ता और दूसरों की बहन-बेटियों को “माल” समझने वाले लोग भी मोमबत्तियां जलाकर स्वयं को स्त्री-अधिकारों का पुरोधा घोषित कर लेते थे।
फिर हमने देखा कि NGO चलाने वाले लोग व्यवस्था-परिवर्तन की लड़ाई छोड़कर देश में सत्ता-परिवर्तन की लड़ाई में जुट गए। पूरी दुनिया से उन्हें पैसे मिलने लगे। कुछ पैसा उन्होंने वेबसाइटों पर दिखाया, बहुत सारा नहीं दिखाया। जब वे आइडियोलॉजी के सवाल पर दूसरे राजनीतिक दलों जितने ही ढुलमुल, मौकापरस्त, दिग्भ्रमित और पथभ्रष्ट दिखाई दिये, तो लोगों को समझ आया कि हो न हो, दाल में कुछ काला ज़रूर है।
यह सच है कि आज भारत में NGOs की एक ताकतवर लॉबी नक्सलवादियों को शह देती है। आतंकवाद पर ख़ामोश रहती है और फ़ौज की मुख़ालफ़त करती है। भारत की परिवार-व्यवस्था को ध्वस्त करने और स्त्री-आज़ादी के नाम पर महिलाओं को भ्रष्ट करने में जुटी हुई है। एक बड़ी लॉबी यह भी चाहती है कि देश की तमाम महिलाएं अपने कपड़े उतार दें और समूचा भारत एक वृहत सेक्स-मंडी में तब्दील हो जाए। यही आधुनिकता है, यही प्रगतिशीलता है, यही आज़ादी है, यही तरक्की है, यही आत्म-निर्भरता है।
बच्चों के लिए भी हज़ारों-लाखों NGOs काम कर रहे हैं, फिर भी हर लाल-बत्ती पर बच्चे भीख मांगते हैं, हर खान-खदान-ढाबे-फैक्टरी में बच्चे काम करते हैं, हज़ारों बच्चे ग़ायब कर दिये जाते हैं, अनगिनत की सेक्स करके हत्याएं कर दी जाती हैं। एक सुरेंद्र कोली पकड़ में आया, हज़ारों-लाखों सुरेंद्र कोली पकड़ से बाहर हैं। मैंने आज तक नहीं सुना कि किसी NGO की कोशिश से चाइल्ड-ट्रैफिकिंग-मर्डर-रेप जैसे जघन्य अपराधों से जुड़े किसी बड़े सरगना को फांसी पर लटका दिया गया हो।
बहरहाल, भारत में यह NGOs के उभार और सक्रियता का दौर है और इस नोबेल पुरस्कार की टाइमिंग से इतना कन्फर्म हो रहा है कि इसे दुनिया के प्रभावशाली मुल्कों, ख़ासकर अमेरिका का संरक्षण-समर्थन हासिल है। भारत के NGOs और अमेरिका-पोषित नोबेल का यह लिंक आज एक पुरानी घटना से भी स्थापित हो रहा है। नक्सलवाद से नाता रखने के आरोपी डॉक्टर विनायक सेन, जिन्हें भारत में भी कम ही लोग जानते थे, उनकी रिहाई के लिए दुनिया के 22 नोबेल पुरस्कार विजेताओं ने हस्ताक्षर अभियान चलाया था।
क्या यह माना जाए कि दुनिया भर के नोबेल पुरस्कार विजेता किसी एक ताकतवर लॉबी के इशारे पर काम करते हैं? क्या यह ताकतवर लॉबी अमेरिका की है? आख़िर अमेरिका की मंशा क्या है? क्या सचमुच वह भारत में मानवाधिकारों, बच्चों के अधिकारों, महिलाओं के अधिकारों आदि के प्रति जागरूकता लाना चाहता है और भारत को भ्रष्टाचार-मुक्त बनाना चाहता है या फिर उसकी नीयत कुछ और ही है?
क्या अमेरिका की दूरगामी योजना भारत को अस्थिर करने की है या विदेशी फंडिंग और पुरस्कारों से पोषित-महिमामंडित NGOs के ज़रिेए भारत की सरकारों पर लगातार दबाव बनाए रखने की है? क्या अमेरिका यह चाहता है कि एक तरफ भारत की सरकारों को बाज़ार-समर्थक ग़रीब-विरोधी नीतियां अपनाने के लिए बाध्य किया जाए, दूसरी तरफ़ भारत के NGOs को यहां के आम अवाम में उनके ख़िलाफ़ और व्यवस्था के ख़िलाफ़ असंतोष भड़काने के काम में लगाया जाए?
या अमेरिका यह चाहता है कि भारत में NGOs की पोल खुले और उस पर नकेल कसे जाने की कोई कोशिश हो, इससे पहले ऐसा माहौल तैयार कर दो कि NGOs पर सवाल खड़े करते ही आपको देशद्रोहियों और ईर्ष्यालु लोगों की कतार में खड़ा कर दिया जाए? अगर नोबेल पुरस्कार समेत कथित रूप से प्रतिष्ठित अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों की ज़रा भी विश्वसनीयता होती, तो आज ये सवाल मन में लाते हुए भी ग्लानि महसूस होती, लेकिन उनकी विश्वसनीयता है नहीं, तो संदेह क्यों न हो?
ज़रा उस दौर को भी याद करिए, जब पश्चिमी देशों को भारत में बाज़ार तैयार करना था, तो उसे भारत की हर लड़की ख़ूबसूरत दिखाई दे रही थी। पीवी नरसिंह राव और मनमोहन सिंह ने अमेरिका-पोषित अर्थनीति को ताज़ा-ताज़ा कबूल किया था और उसके ठीक बाद मिस वर्ल्ड और मिस यूनिवर्स जैसे सारे पुरस्कार भारत की झोली में आकर गिरने लगे थे। अब भारत ने ख़ुद ही बाज़ार के रास्ते में लाल कालीन बिछा दी है और प्रधानमंत्रीगण प्राइवेट कंपनियों के सीईओ की तरह दुनिया भर में घूम-घूमकर बिजनेस की बातें कर रहे हैं, तो भारत की लड़कियों को पुरस्कृत करने की ज़रूरत ही नहीं है।
क्या मिस यूनिवर्स सुष्मिता सेन और मिस वर्ल्ड ऐश्वर्या राय से पहले (1994) और मिस यूनिवर्स लारा दत्ता और मिस वर्ल्ड प्रियंका चोपड़ा (2000) के बाद भारत की लड़कियां ख़ूबसूरत नहीं थीं और नहीं हैं? 1994 से पहले सन्नाटा क्यों था और 2000 के बाद सूखा क्यों पड़ा है? ज़रा सोचिएगा।
मेरे मन में इन अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों को लेकर कई तरह के सवालात हैं। मेरे मन में नोबेल शांति पुरस्कारों की भी अधिक विश्वसनीयता नहीं है। अमेरिका का राष्ट्रपति बनते ही जिस तरह से इसे बराक ओबामा के चरणों में समर्पित कर दिया गया था, उससे साफ़ हो गया था कि यह अमेरिका का “बपौती पुरस्कार” है और अमेरिका इसे अपने तात्कालिक और दूरगामी राजनीतिक और कूटनीतिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए “ट्रैप” और “लालच” के तौर पर बांटता है।
डिस्क्लेमर-
न तो मेरी कैलाश सत्यार्थी के योगदान पर सवाल खड़े करने की मंशा है, न ही सारे NGOs को अमेरिका या दूसरे मुल्कों का दलाल घोषित करने के लिए मेरे पास सबूत हैं। यह भी मानता हूं कि कई NGOs बेशक अच्छा काम कर रहे हैं और देश को उनकी ज़रूरत है, इसलिए मेरे सवालों को उचित संदर्भ में लें।
आभार : http://www.hastakshep.com/intervention-hastakshep/%E0%A4%AC%E0%A4%B9%E0%A4%B8/2014/10/12/us-funded-ngos-active-in-india-and-the-alliance-of-nobel

जिन्दा बने रहिये क्योंकि डॉ. लोहिया ने इंतज़ार करने    के लिए मना किया है

इमरान इदरीस

 बीसवीं सदी के दो महान महामानव वैज्ञानिक आइन्स्टीन और राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी जी ने एक व्यक्ति का उल्लेख महापुरुष में किया है वो है — डॉ राम मनोहर लोहिया।
असाधारण लोहिया 12 अक्तूबर 1967 को एक साधारण से ऑपरेशन के बाद इस संसार से चले गए। अंतिम समय अपने इर्द-गिर्द डॉक्टरों की फ़ौज देखकर उनकी चिंता भारत के आम नागरिक को मिलने वाली स्वास्थ सेवाओं को लेकर हुई थी।
कौन थे लोहिया। ना कोई परिवार, ना कोई घर, ना कोई बैंक या डाकखाने में खाता। पास में अगर कुछ था तो वो था एक चमड़े का बक्सा उसमें कुछ किताबें, कुर्ते और धोतियां।
1932 में मात्र 22 वर्ष की आयु में जर्मनी के विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में डॉक्टरेट की उपाधि मिली। अनेक भाषाओं के जानकार जर्मन, अंग्रेजी, बंगला, मराठी और हिंदी पर उनका बराबर नियंत्रण।
1963-67 मात्र चार सालों में संसद के सदस्य, जिन्होंने आम भारतीय के, गरीबी की बात करके संसद को हिला दिया। 16 आना और 4 आना की एतिहासिक बहस यू-ट्यूब पर है।
आखिर लोहिया को पढ़ने वाला लोहिया क्यों बन जाता है। डॉ. साहब ने कहा था लोग मेरी बात सुनेंगे जरूर, पर मेरे जाने के बाद। उन्होंने सही कहा था क्योंकि आज उनके जाने के 47 साल बाद भी नौजवान उनको पढ़ता है और आकर कहता है लोहिया जी मैं समाजवाद की उस परिकल्पना के साथ हूँ और आपके रास्तों पर चलने के लिए तैयार हूँ।
दरअसल लोहिया विचारधारा है और उस पर चलने वाले प्रहरी। जो भी इस विचारधारा पर चला है, ईश्वर ने उसे रास्ता और यश अपने आप दिया है।
आज डॉ. साहब आपको मेरा सलाम। श्रद्धांजलि शब्द नहीं बोलूँगा क्योंकि डॉ. साहब जैसे लोग अनंतकालीन जीवन जीते हैं, लोगों के अन्दर आत्म-विश्वास बनकर जिन्दा रहते हैं।
जिन्दा बने रहिये क्योंकि डॉ साहब ने इंतज़ार करने के लिए मना किया है। …-
 आभार : http://www.hastakshep.com/intervention-hastakshep/memoirs-reminiscences/2014/10/12/a-tribute-to-dr-ram-manohar-lohia